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मेवाड़ की जैन पंचतीर्थी
मंत्री थे। दयालशाह के मंत्री होने की घटना जैसे रहस्य पूर्ण है, वैसे ही उनके यह मन्दिर बनवाने की घटना भी विचित्र है।
दयालशाह, वास्तव में कहाँ के रहनेवाले थे, यह बात नहीं मालम होपाई है। किन्तु वे संघवी गोत्र के सरूपर्या ओसवाल थे। उनके पूर्वज सीसोदिया थे । जैनधर्म स्वीकार कर लेने के पश्चात् उनकी गणना ओसवाल जैन के रूप में होने लगी।
दयालशाह नेता का (शिलालेख में कोई कोई तेना भी पढ़ते हैं ) प्रपौत्र, गजु का पौत्र और राजू का पुत्र था। इस मन्दिर की मूर्ति के शिलालेख पर से जान पड़ता है कि राजू के चार पुत्र थे, जिनमें सब से छोटा दयालशाह था।
दयालशाह उदयपुर के एक ब्राह्मण के यहाँ नोकरी करते थे। महाराणा राजसिंहजी की एक स्त्रीने, महाराणा को विष दे देने के लिये एक पत्र उस पुरोहित को लिखा था, जिसके यहाँ दयालशाह नौकर थे। पुरोहित ने वह पत्र अपनी कटार के म्यान में रख छोडा था।
ऐसा प्रसंग उपस्थित हुआ, कि दयालशाह को अपनी सुसराल देवाली जाना था। साथ में कोई शस्त्र हो तो अच्छा है, ऐसा समझ कर उन्होंने अपने स्वामी उस पुरोहित से कोई शस्त्र मांगा। पुरोहित को उस. चिट्ठी की याद नहीं रही, अतः उसने वही कटार दयालशाह को दे दी, जिसके म्यान में रानी की चिट्ठी छिपी हुई थी।
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