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मेरी मेवाड़यात्रा है और न वन्दनविधि का ही उन्हें कुछ पता है। और तो क्या, मूर्ति को मानने वाले संवेगी साधु कैसे होते हैं, इस बात की भी उन बेचारों को खबर नहीं है । पुर, भीलवाड़ा, गङ्गापुर आदि की तरफ मालूम हुआ कि वृद्ध से वृद्ध लोग मी कहते हैं, कि संवेगी साधु कैसे होते हैं, इस बात का पता उन्हें हमें देख कर अब लगा है।
मेवाड़ में अधिकतर दो ही संप्रदायों की बस्ती है। स्थानकवासी और तेरहपन्थी । उदयपुर से विहार करने के पश्चात् लगभग सभी ग्रामों में स्थानकवासी ही दीख पड़ते थे। किन्तु, राशमी से तेरहपन्थियों की शुरूआत देखी गई। ज्यों ज्यों हम यहाँ से आगे बढ़ते गये, त्यों ही त्यों मूर्तिपूजा के साथ साथ दया दान आदि मनुष्यत्व के सच्चे गुणों का भी निषेध करने वाले तेरहपन्थियों का समूह ही अधिक दीख पड़ा। और जहाँ जहाँ तेरहपन्थियों का जोर अधिक है, तहाँ तहाँ मूर्तियाँ एवं मन्दिरों की असातना अधिक होती है। अपने प्रवास में हमें इस बात का अनुभव हुआ है कि जहाँ जहाँ स्थानकवासी हैं वहाँ भले ही एक भी घर मन्दिमार्गियों का न हो, किन्तु मन्दिर की सामान्यतः देखरेख तथा सम्हाल और कम से कम पूजारी द्वारा मामुली पूजापाठ होता अवश्य ही देखागया। किन्तु जहाँ तेरहपन्थियों का निवास है, वहाँ मन्दिरों तथा मूर्तियाँ की इतनी अधिक दुर्दशा. देखी गई कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। तेरहपन्थी लोग
मूर्तिपूजा में अविश्वास कर के ही नहीं सन्तोष किये रहे, बल्कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com