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मेरी मेवाड़यात्रा उनका नाम था-लल्लूभाई।।
इस बार उदयपुर में मालूम हुआ, कि वे तो अब नहीं रहे, उनका स्वर्गवास हो चुका है। किन्तु उदयपुर छोड़ कर, हम ज्यों ज्यों उत्तर पश्चिम मेवाड़ में भागे 'बढ़ते गये, त्योंही-त्यों हमें यह बात मालम होती गई, कि उस 'अमरमात्मा का नाम : तोन्मेवाड़ के प्रत्येक जैन की 'अबान पर मौजूद है । मेवाड़ के लगभग प्रत्येक मन्दिर के
हर पत्थर में उनका नाम - जीता जागता रम रहा है। चाहे जिस माम में जाइये, स्थानकवासी और तेरहपन्थी, -त्योंही सेठ
और महात्मा, प्रत्येक मनुष्य इन्हीं लल्लूभाई का नाम रट रहा है। 'यदि लल्लूभाई न होते; तो. हमारे गाम में मन्दिर न बन पाता'। यदि बल्लभाई न होते, तो हमारे यहां प्रतिष्ठा नहीं हो सकती थी।''इस तीर्थ के गौरव में इतनी वृद्धि हुई, यह ललूभाई के पुरुषार्थ का ही परिणाम है '। यह धर्माला तो लल्लभाई ने बनवानी प्रारम्भ की थी, किन्तु उस आत्मा के चले जाने के कारण यह कार्य अधूरा ही रह गया'। यों भिन्न भिन्न रूपों में इस त्यागी, अपना सर्वस्व धर्म के निमित्त 'न्यौछावर कर देनेवाले लल्लूभाई का नाम लोग स्मरण कर रहे हैं। गुजरात में जन्म ले - कर मी, मेवाड में धर्म को कायमारखने के लिये शहीद हो जाने वाले ये सल्लामाई, मेवाड के जैन इतिहास में अमर हो गये हैं । _ 'मेड़ के इतिहास में, इन लालूभाई का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा पहाडों तथा जंगलों में भटक भटक कर जैन
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