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मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में
उदयपुर में चतुर्मास के लिये प्रवेश किया, उसी दिन से ये शब्द कानों में पड़ने लगे
“ मेवाड़ में तीन हनार मन्दिर हैं". " मन्दिरों की भयङ्कर असातनाएँ हो रही हैं " " प्रायः सभी लोग तेरहपन्थी या स्थानकवासी हो गये हैं. ५ " तेरहपन्थी साधु इरादेपूर्वक प्रभुमूर्ति को असातनाएँ करते हैं " ." शेताम्बर मूर्ति पूजक कोई साधु नहीं विचरते " " वास्तविक मार्ग बतलानेवालों के अभाव में बेचारे लोग प्रभुपूजा में पाप मान रहे हैं............ आदि आदि।
उदयपुर के प्रत्येक धर्मप्रेमी के इन शब्दों में धर्म की सच्ची लगन थी और शासन का प्रेम था । मेवाड़ में विचर कर वस्तुस्थिति जानने की भावना होने पर भी, साथ के आत्मबन्धु मुनिराज श्री जयन्तविजयजी की बिमारी, कराँची के संघकी विनति को मान देकर सिंध जैसे हिंसक प्रदेश में जाने को तत्परता, त्यों ही
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