Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 11
________________ पूर्वावलोकन भारतीय दर्शन की जान है वाद । 'वादे वादे जायते तत्त्वबोध:', अर्थात् वाद-विवाद से हम तत्त्वज्ञान की ओर पहुँचते हैं । वाद-विवाद का अर्थ है विचारों का टकराव । विचारों का यह टकराव तब पैदा होता है जब किसी विषय को लेकर हमारे मन में कोई शंका पैदा होती है या कोई समस्या उठती है । सर्वप्रथम वादी अपने पक्ष के समर्थन में दलील पेश करता है, किसी विषय को लेकर उसके मन में सन्देह पैदा होता है । विपक्ष प्रतिवादी इन दलीलों को काटता है, उनका खंडन करता है । उसके बाद दोनों पक्षों की परीक्षा द्वारा वस्तु का निर्णय किया जाता है जिसे समन्वय कहते हैं । यूनानी मनीषियों ने भी विचार-विमर्श की इस शैली को स्वीकार किया है । वे लोग डायलोग्स अर्थात् वार्तालाप द्वारा किसी विषय की चर्चा करते हैं, प्रश्न किये जाते हैं, उनके उत्तर प्रदान होते हैं और इस प्रकार किसी वस्तु की परीक्षा द्वारा विषय का निर्णय किया जाता है । विषय की परीक्षा किये बिना उसका निर्णय नहीं किया जा सकता । और जब तक किसी विषय को लेकर उसमें सन्देह पैदा न हो, कोई समस्या न उठे तब तक उसकी परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं । परीक्षा करना ही दर्शन (अर्थात् देखना) की शुरुआत है । इस प्रकार हम देखते हैं कि सन्देह सर्व प्रमुख है, जब तक किसी बात में सन्देह पैदा न हो तब तक पक्ष और विपक्ष के प्रतिपादन से उसे परीक्षा की कसौटी पर कसने की आवश्यकता का सवाल ही नहीं उठता । प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपनय (अन्वय) और निगमन (व्यतिरेक) इसी विचार प्रणाली का विस्तृत रूप है । वैदिक धर्मानुयायियों के मतानुसार ईश्वर के अस्तित्व में जो कार्य-कारण भाव मूलक प्रमाण दिया जाता है, उसका यही स्वरूप है: पृथ्वी, पर्वत आदि किसी बुद्धिमान कर्ता द्वारा निर्मित हैं (प्रतिज्ञा); कार्य होने से (हेतु); जो कार्य होते हैं वे किसी बुद्धिमान कर्ता द्वारा निर्मित होते हैं, जैसे घर (दृष्टान्त), पृथ्वी, पर्वत. आदि कार्य हैं, अतएव वे किसी कर्ता द्वारा निर्मित हैं (उपनय), जो कार्य नहीं वे किसी कर्ता द्वारा निर्मित नहीं, जैसे आकाश (निगमन) । इस प्रकार न्यायसूत्रों के रचयिता गौतम ऋषि और न्यायसूत्रों के प्रथम भाष्यकार वात्स्यायन का न्यायदर्शन के क्षेत्र में यह महत्त्वपूर्ण योगदान है जो उन्होंने प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान इन १६ पदार्थों के ज्ञान को प्रमुखता दी है । शोधकर्ता का कार्य बहुत गहन है, खांडे की धार पर चलने की भाँति वह दुष्कर है । उसके लिये किसी बात का प्रतिपादन करने में तरतमता की गुंजायश नहीं । जैसी वस्तु हो उसका उसी रूप में प्रतिपादन करना-न कम, न ज्यादा-गुड्डे-गुड़ियों का खेल नहीं । प्रतिपादन कर्ता को तटस्थ रहकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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