Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 13
________________ ( ११ ) य आदि मनोविनोद, सौन्दर्य के विभिन्न म्प, देव और मनुष्य के चरित्र का मिश्रित वन होता है । 1 मैली की दृष्टि से नकटकथा, जाि सकीर्णकथा ये पाँच भेद किये गये हैं। लाया में चारों पुरुषार्थ नीरस आ चरिन और जन्म-जन्मान्तरों के नकारी का वर्णन होता है हत्य गुण और परिणाम दोनो ही दृष्टियों ने महत्वपूर्ण है। जन-जीवन ६ उसमे किया गया है । न नृषि जागम साहित्य मे बीज रूप मे कथाएं मिलती है तो नियुक्तिय और टीका माहित्य में उनका पूर्ण निखार दृष्टिगोचर होता है। हजारो ल कथाएँ उनमे आयी है | आगमकालीन कवाज की यह महत्वपूर्ण विशेषता उसमे उपमाओ और दृष्टान्तो का अवलम्बन लेकर जन-जीवन को धर्म-सिद्धान्नों को ओर अधिकाधिक आकर्षित किया गया है । उन कथाओं की उत्पत्ति, उपमान, पक और प्रतीको के आधार से हुई है । यह सत्य है कि आगमकालीन कथाजी में क्षेप करने के लिए यत्र-तत्र 'वण्णओ' के रूप मे मकेत किया गया है, जिसने कथा को पढते समय उसके वर्णन को समग्रता का जो आनन्द आना चाहिए उनमे कमी रह जाती है | व्याख्या साहित्य मे यह प्रवृत्ति नही अपनाई गई । कथाओ में जहां जागम साहित्य मे केवल धार्मिक भावना की प्रधानता थी, वहाँ व्याख्या माहित्य मे साहित्यिकता भी अपनायी गई । एकरूपता के स्थान पर विविधता और नवीनता का प्रयोग किया जाने लगा । पात्र, विषय, प्रवृत्ति, वातावरण, उद्देश्य, रूपगठन एव नीति सश्लेषण, प्रभृति सभी दृष्टियों से आगमिक कथाओ की अपेक्षा व्याख्या - साहित्य की कथाओ मे विशेषता व नवीनता आयी है | आगमकालीन कथाओ मे धार्मिकता का पुट अधिक आ जाने से मनोरजन व कुतूहल का प्राय अभाव था किन्तु व्याख्या साहित्य की कथाओ मे यह बात नही है । आगम युग की कथाएँ चरित्रप्रधान होने से विस्तार वाली होती थी, पर व्याख्या साहित्य की कथाएँ सक्षिप्त । ऐतिहासिक, अर्द्ध- ऐतिहासिक, पौराणिक सभी प्रकार की कथाएँ आगम साहित्य मे आई है । २९. नमराइच्चकहा - याकोवी संस्करण पृ० २ (ख) लीलावई कहा गा० ३५, गा० ४१, पृ० ११ आगम साहित्य की कथाओ मे अहिंसा, सत्य, सयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य, आत्मदमन, कर्म सिद्धान्त और जाति-विरोध की मुख्यता प्रतिपादित की है । अस्पृश्य समझी जाने वाली जाति का व्यक्ति भी मद्गुणो को धारण कर किस प्रकार अपने जीवन को चमका सकता है वह बताया गया है । ३० कुवलयमाला, पृ० ४, अनुच्छेद ७ ३१ हैम काव्य शब्दानुशासन ५६, पृ० ४६५

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