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महावीर-वाणी
भाग : 1
अपनी शक्ति को ऐसे ही लुटाए चले जाते हैं। ऐसे ही, व्यर्थ ही, जिसका कोई परिणाम नहीं होनेवाला है; जिससे कुछ उपलब्ध होने वाला नहीं है; जिससे कहीं पहुंचेंगे नहीं। कुर्सी पर बैठकर पैर हिलाते रहते हैं। कोई मंजिल इससे हल नहीं होती। उतनी शक्ति से कहीं पहुंचा जा सकता था, कुछ पाया जा सकता था। चौबीस घण्टे हम शक्ति को अपने अंगों से बाहर फेंक रहे हैं। लेकिन इसका अध्ययन करना पड़ेगा पहले, स्वयं को पहचानना पड़ेगा और आप बहुत हैरान होंगे, आपकी जिंदगी की किताब जब आपके सामने खुलनी शुरू होगी तो आप हैरान होंगे कि कोई रहस्यपूर्ण से रहस्यपूर्ण उपन्यास इतना रहस्यपूर्ण नहीं और अनूठे से अनूठी कथा इतनी स्टेंज, इतनी अजनबी नहीं, जितने आप हैं।
और ऐसा ही नहीं है कि क्रोध और अक्रोध में आप अलग स्थिति पाएंगे। आप पाएंगे कि क्रोध के भी स्टेप्स हैं। क्रोध में भी बहुत रंग हैं। कभी आप एक ढंग से क्रोधित होते हैं, कभी दूसरे ढंग से क्रोधित होते हैं, कभी तीसरे ढंग से क्रोधित होते हैं। और तब तीनों ढंग के क्रोध में आपके शरीर की आकृति अलग-अलग होती है। और तब पर्त-पर्त अपने को आप देखेंगे तो चकित हो जाएंगे कि कितना आपके भीतर छिपा है। यह पहला प्रयोग है -निरीक्षण। इससे आप पहचान पाएंगे कि आपके भीतर क्या हो रहा है? आप जो शक्ति के पुंज हैं, उस शक्ति का आप क्या उपयोग कर रहे हैं?
दूसरी बात - जैसे ही आप समर्थ हो जाएं कि आप क्रोध को देख पाएं वैसे ही आप आईने के सामने पाएंगे कि अपने-आप भी क्रोध शांत होगा, आप एक दूसरा प्रयोग जोड़ें, वह संलीनता का दूसरा प्रयोग है। जब चित्त क्रोध से भरा हो, तब आप आईने के सामने खड़े हो जाएं। निरीक्षण करने के बाद ही यह किया जा सकता है। लम्बे निरीक्षण के बाद ही यह हो सकेगा। आईने के सामने खड़े हो जाएं और अपने तरफ से शरीर के अंगों को वैसा करने की कोशिश करें जैसा शान्ति में होता है। आईने के सामने खड़े हो जाएं। आपको भली-भांति याद है कि शान्ति में चेहरा कैसा होता है। अब क्रोध की स्थिति है। चेहरा क्रोध की धारा में बह रहा है। आप आईने के सामने खड़े होकर उस चेहरे को याद करें जो शान्ति में होता है, और चेहरे को शांति की तरफ ले जाने लगता है। बहुत ही थोड़े दिनों में आप हैरान होंगे कि आप चेहरे को शांति की तरफ ले जाने में समर्थ हो गए हैं। सारी अभिनय की कला, सारी एक्टिंग इस अभ्यास पर निर्भर करती है। जन्मजात किसी को यह प्रतिभा होती है तो वह अभिनय में कुशल मालूम पड़ता है।
लेकिन यह प्रतिभा विकसित की जा सकती है और यह इतनी विकसित की जा सकती है कि जिसका कोई हिसाब लगाना कठिन है। आईने के सामने खड़े होकर, क्रोध भीतर है और आप चेहरे पर शांति की धारा बहा रहे हैं। थोड़े ही दिनों में आप समर्थ हो जाएंगे। और तब आप एक और नया अनुभव कर पाएंगे। और वह यह होगा कि क्रोध मन में दौड़ता, शांति शरीर में दौड़ सकती है। और जब आप इन दोनों में समर्थ हो जाते हैं तो आप तीसरे हो जाते हैं -- न तो आप क्रोध रह जाते, न आप मन रह जाते और न आप शरीर रह जाते। क्योंकि मन क्रोध में है, वह क्रोध से जल रहा है। लेकिन शरीर पर आपने शांति की धारा बहा दी है, वह शांत आकृति से भर गया है। निश्चित ही आप दोनों से अलग और पृथक हो गए। न तो अब आप अपने को आइडेंटिफाई कर सकते हैं क्रोध से, और न शांति से। दोनों से तादात्म्य नहीं कर सकते। आप दोनों को देखनेवाले हो गए।
और जिस दिन आप दो पैदा कर लेते हैं एक साथ, उस दिन आपको पहली दफा एक मुक्ति अनुभव होती है। आप दोनों के बाहर हो जाते हैं। एक के साथ तादात्म्य आसान है, दो के साथ तादात्म्य आसान नहीं है। एक के साथ जुड़ जाना आसान है, दो विपरीत चीजों के साथ एक साथ जुड़ जाना बहुत कठिन है, असम्भव है। हां, अलग-अलग समय में हो सकता है कि सुबह आप क्रोध के साथ जुड़ें, दोपहर आप शांति के साथ जड़ें; यह हो सकता है, अलग-अलग समय में। लेकिन साइमल्टेनियसली, युगपत आप
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