Book Title: Mahavira Vani Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 498
________________ महावीर-वाणी भाग : 1 इंद्रियां अपने मार्ग से नहीं हटना चाहतीं, और अगर आप किसी नये मार्ग को खोजते हैं जो इंद्रियों के लिए प्रीतिकर नहीं है, तो इंद्रियां बगावत करेंगी। वह बगावत दुख है। इसलिए श्रेय की खोज में दुख मिलेगा पहले, लेकिन जैसे-जैसे खोज बढ़ती है दुख क्षीण होता चला जाता है। दुख क्षीण होता है, इसका अर्थ है कि इंद्रियां धीरे-धीरे, धीरे-धीरे इस नये मार्ग पर चेतना का अनुगमन करने लगती हैं। दुख खो जाता है। और जिस दिन इंद्रियां चेतना का पूरा अनुगमन करती हैं, उसी दिन सुख का अनुभव होता है। श्रेयार्थी की खोज में पहले दुख है और पीछे आनंद। प्रेयार्थी की खोज में पहले सुख का आभास है, और पीछे दुख। इंद्रियों की जो मानकर चलता है, वह पहले सुख पाता हुआ मालूम पड़ता है, पीछे दुख में उतर जाता है । इंद्रियों की मालकियत करके जो चलता है वह पहले दुख मालूम पड़ता है, पीछे आनंद में बदल जाता है। श्रेयार्थी का अर्थ है, जिसने जीवन के इस रहस्य को समझ लिया कि जो खोजो वह नहीं मिलता। जिसे खोजने निकलो, वह हाथ से खो जाता है। जिसे पकड़ना चाहो, वह छूट जाता है। अगर सुख खोजते हो तो सुख नहीं मिलेगा, इतना निश्चित है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति दुख के लिए राजी हो जाये, और दुख के लिए स्वयं को तत्पर कर ले, और दुख के प्रति वह जो सहज विरोध है मन का, वह छोड़ दे, तो सुख मिल जाता है। ऐसा क्यों होता होगा? ऐसा होने का कारण क्या होगा? होना तो यही चाहिए नियमानुसार कि हम जो खोजें, वही मिल जाये। होना तो यही चाहिए कि जो हम न खोजें वह न मिले। ऐसा क्यों है, इसे हम थोड़ा समझ लें। ___ इन्द्रियां अपना रस रखती हैं। आंख सुख पाती है कुछ देखने में। अगर रूप दिखायी पड़े तो आंख आनंदित होती है। लेकिन अगर वही रूप निरंतर दिखायी पड़ने लगे, तो आनंद क्रमशः खोता चला जाता है। क्योंकि जो चीज निरंतर उपलब्ध होती है, वह देखने योग्य नहीं रह जाती। दर्शनीय तो वही है जो कभी-कभी, आकस्मिक, मुश्किल से दिखायी पड़ती हो। आप जाते हैं काश्मीर और डल झील सुखद मालूम पड़ती है। लेकिन वह जो आपकी नौका खे रहा है, उसे डल झील दिखायी ही नहीं पड़ती, और कई बार उसे हैरानी भी होती है कि लोग कैसे पागल हैं, इतने दूर-दूर से इस डल झील को देखने आते हैं। __ इन्द्रियां नवीन आघात में सुख पाती हैं। आघात जब सुनिश्चित, पुराना पड़ जाता है तो उबाने वाला हो जाता है। आज जो भोजन आपने किया है, वह सुखद है। कल भी वही, परसों भी वही, दुखद हो जायेगा। इन्द्रियों के लिए नये में सुख है। इसलिए इन्द्रियों के सभी सुख, दुख बन जायेंगे। क्योंकि जितना आप चाहेंगे...लगता है किसी से आपका प्रेम है तो लगता है, चौबीस घंटे उसके पास बैठे रहें। भूलकर बैठना मत। क्योंकि अगर चौबीस घंटे उसके पास बैठे रहे तो आज नहीं कल यह उबाने वाला हो जाने वाला है। और आज नहीं कल ऐसा होगा, कैसे छुटकारा हो? ये वही इन्द्रियां हैं जो कहती थीं, पास रहो, ये ही इन्द्रियां कहेंगी, भाग जाओ, दूर निकल जाओ। क्योंकि जो पुराना पड़ जाता है, इन्द्रियों का उसमें रस नहीं है। पुराने के साथ ऊब पैदा हो जाती है। इसलिए इन्द्रियां जिसे प्रीतिकर कहती हैं कल उसी को अप्रीतिकर कहने लगती हैं। इन्द्रियों की तलाश में प्रीति से प्रारंभ होता है, अप्रीति पर अंत होता है। यह इन्द्रियों का स्वभाव हुआ। इससे ठीक विपरीत स्थिति श्रेयार्थी की है। श्रेयार्थी जो परिवर्तनशील है उसकी खोज नहीं कर रहा है जो नया है उसकी खोज नहीं कर रहा है। श्रेयार्थी तो उसकी खोज कर रहा है जो शाश्वत है। जो सदा है। प्रेयार्थी नये की खोज कर रहा है, नया सेनसेशन, नयी संवेदना, नया सुख। वह नये की तलाश में लगा है। श्रेयार्थी उसकी खोज कर रहा है, न नये की, न पुराने की; क्योंकि श्रेयार्थी जानता है कि जो नया है अभी, क्षणभर बाद पुराना हो जायेगा। जो भी नया 484 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548