Book Title: Mahavira Vani Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 510
________________ महावीर-वाणी भाग : 1 करने के पहले किताब नहीं पढ़नी चाहिए क्योंकि उससे आलोचक का मन अगर प्रभावित हो जाये तो पक्षपात हो जाता है। सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन बुढ़ापे में मजिस्ट्रेट हो गया, जे पी। पहला ही आदमी आया। मिल गया होगा। किसी स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर, उसको जे पी होना। पहला ही आदमी आया, पहला ही मुकदमा था। एक पक्ष बोल पाया था कि उसने जजमेंट लिखना शुरू किया। कोर्ट के क्लर्क ने कहा, महानुभाव, यह आप क्या कर रहे हैं। अभी आपने दूसरे पक्ष को तो सुना ही नहीं। नसरुद्दीन ने कहा, अभी मेरा मन साफ है और अगर मैं दोनों को सुन लूं तो सब कन्फ्यूजन हो जायेगा, जब तक मन साफ है, मुझे निर्णय लिख लेने दो, फिर पीछे दूसरे को भी सुन लेंगे। फिर कुछ गड़बड़ होने वाली नहीं है। हम सब ऐसे ही कन्फ्यूजन में हैं, और हम किसी की भी नहीं सुनता चाहते हैं कि कहीं कन्फ्यूज न हो जायें। हम अपने को ही सुने चले जाते हैं। जब हम दूसरे को भी सुन रहे हैं तब हम पर्दे की ओट से सुनते हैं छांटते रहते हैं, क्या छोड़ देना है, क्या बचा लेना है? फिर जो बचता है, वह आपका ही चुनाव है। लोग अपने विचार को पकड़ कर चलते हों, तो गुरु से उनका कोई संबंध नहीं हो सकता। वे लाख गुरुओं के पास भटकें वे अपने इर्द-गिर्द ही परिक्रमा करते रहते हैं। वे अपने घर को कभी नहीं छोड़ पाते, उसके आस-पास ही घूमते रहते हैं। इसलिए महावीर ने कहा है, कहता हूं उसे विनय संपन्न, जो गुरु की मुद्राओं तक को वैसा ही समझ लेता हो, जैसी वे हैं। फिर पंद्रह लक्षण महावीर ने गिनाये। निम्नलिखित पंद्रह लक्षणों से मनुष्य सुविनीत कहलाता है। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण हैं___ 'उद्धत न हो', एग्रेसिव न हो, आक्रमक न हो। क्योंकि जो आक्रमक है चित्त से वह ग्रहण न कर पायेगा। रिसेप्टिव हो, ग्राहक हो, उद्धत न हो। ___ अलग-अलग बात...स्थितियां हैं। जब आप उद्धत होते हैं तब आप दूसरे पर आक्रमण कर रहे हैं। लोग आते हैं, उनके प्रश्न ऐसे होते हैं, जैसे वे प्रश्न न लाकर, एक छुरा लेकर आये हों। प्रश्न पूछने के लिए नहीं होते, हमला करने के लिए होते हैं। प्रश्न कुछ समझने के लिए नहीं होते हैं। कुछ समझाने के लिये होते हैं तो अगर शिष्य गुरु को समझाने आया हो, तो कुछ भी होने वाला नहीं है। यह तो नदी जो है, नाव के ऊपर हो गयी, अगर शिष्य गुरु को समझाने आया हो। हालांकि ऐसे शिष्य खोजना मुश्किल है जो गुरु को समझाने न आते हों। तरकीब से समझाने आते हैं और फिर भी यह मन में माने चले जाते हैं कि हम शिष्य हैं। __महावीर कहते हैं, उद्धत न हो, नम्र हो। आक्रमक न हो, ग्राहक हो, कुछ लेने आया हो। चपल न हो, स्थिर हो। क्योंकि जितनी चपलता हो, उतना ही ग्रहण करना मुश्किल हो जाता है। चपल आदमी का चित्त वैसे होता है जैसे फूटी बाल्टी हो। ग्राहक भी हो तो किसी काम की नहीं, पानी भरा हुआ दिखायी पड़ेगा जब तक पानी में डूबी रहे। ऊपर निकालो पानी सब गिर जाता है। चपल चित्त छेद वाला चित्त है। जब वह गुरु के पास भी बैठा हुआ है तब तक वह हजार जगह हो आया। बैठे हैं वहां न मालूम कहां-कहां का चक्कर काट आये। तो जितनी देर वह कहीं और रहा उतनी देर गुरु ने जो कहा, वह तो सुनायी भी नहीं पड़ेगा। _ 'स्थिर हो, मायावी न हो, सरल हो',...किसी तरह का धोखा देने की इच्छा में न हो। हम सब होते हैं। गुरु के पास जब कोई जाता है तो वह बताता है कि मैं बिलकुल ईमानदार हूं, सच्चा हूं। नहीं, वह जो हो उसे बता देना चाहिए। क्योंकि गुरु को धोखा देने से वह अपने को ही धोखा देगा। यह तो ऐसा हुआ, जैसे किसी डाक्टर के पास कोई जाये। हो कैंसर और बताये कि कुछ नहीं. जरा फोडा-फंसी है। तो फोडा-फंसी का इलाज हो जायेगा। ___ डाक्टर को हम धोखा नहीं देते बीमारी बता देते हैं वही जो है। तो ही डाक्टर किसी उपयोग का हो पाता है। गुरु तो चिकित्सक है। उसके पास जाकर तो सब खोल देना जरूरी है, तो ही निदान हो सकता है। लेकिन हम उसके साथ भी वही धोखा चलाये जाते हैं जो हम दुनिया भर में चला रहे हैं। उसके साथ भी हम वह दिखाये चले जाते हैं जो हम नहीं हैं, तो बदलाहट कभी भी संभव नहीं 496 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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