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महावीर-वाणी
भाग : 1
आपके दिन उतने रसपूर्ण नहीं हैं, जितनी आपकी रातें रसपूर्ण हैं। और आपकी जागृति उतनी रसपूर्ण नहीं है, जितने स्वप्न आपके रसपूर्ण हैं। स्वप्न में आपका मन उन्मुक्त होकर अपने संसार का निर्माण कर लेता है। स्वप्न में हम सभी स्रष्टा हो जाते हैं और अपनी कल्पना का लोक निर्मित कर लेते हैं। बाहर का जगत थोड़ी बहुत बाधा भी डालता होगा, वह बाधा भी नष्ट हो जाती है।
रस परित्याग का अर्थ-इंद्रियों को नष्ट कर देना नहीं है। रस परित्याग का अर्थ है इंद्रियों और चेतना के बीच जो संबंध है, जो बहाव है, जो मूर्छा है, उसे क्षीण कर लेना। ___ इंद्रियां खबर देती हैं, वे खबर उपयोगी हैं। इंद्रियां सूचनाएं लाती हैं, संवेदनाएं लाती हैं बाहर के जगत की, वे अत्यंत जरूरी हैं। उन इंद्रियों से लायी गयी सूचनाओं, संवेदनाओं पर मन की जो गहरी भीतरी आसक्ति है, वह जो मन का रस है, वह जो मन का ध्यान है, जो मन का उन इंद्रियों से लायी गयी खबरों में डूब जाना है, खो जाना है, वहीं खतरा है।
मन अगर खोये न, चेतना अगर इंद्रियों की लायी हई सचनाओं में डबेन. मालिक बनी रहे. तो त्याग है। इसे ऐसा समझें. इंद्रियां जब मालिक होती हैं चेतना की, और चेतना अनुसरण करती है इंद्रियों की, तो भोग है। और जब चेतना मालिक होती है इंद्रियों की,
और इंद्रियां अनुसरण करती हैं चेतना का, तो त्याग है। ___ मैं मालिक बना रहूं, इंद्रियां मेरी मालिक न हो जायें। इंद्रियां जहां मुझे ले जाना चाहें, वहां खींचने न लगें; मैं जहां जाना चाहूं जा सकूँ। और मैं जहां जाना चाहूं, वहां जाने वाले रास्ते पर इंद्रियां मेरी सहयोगी हों। रास्ता मुझे देखना हो तो आंख देखे, ध्वनि मुझे सुननी हो तो कान ध्वनि सुने, मुझे जो करना हो इंद्रियां उसमें मुझे सहयोगी हो जायें, इंस्ट्रूमेंटल हों-यही उनका उपयोग है। ___ हमारी इंद्रियां और हमारा जो संबंध है वह मालिक का है या गुलाम का, इस पर ही सभी कुछ निर्भर करता है। यह मेरा हाथ, जो मैं उठाना चाहूं, वही उठाये, तो मैं त्यागी हूं, और यह मेरा हाथ मुझसे कहने लगे कि यह उठाना ही पड़ेगा, और मुझे उठाना पड़े, तो मैं भोगी हूं, यह मेरी आंख, जो मैं देखना चाहूं, वही देखे तो मैं त्यागी हूं। और यह आंख ही मुझे सुझाने लगे कि यह देखो, यह देखना ही पड़ेगा, इसे देखे बिना नहीं जाया जा सकता, तो मैं भोगी हं। भोग और त्याग का इतना ही अर्थ है कि इंद्रियां मालिक हैं या चेतना मालिक है? चेतना मालिक है तो रस विलीन हो जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि इंद्रियां विलीन हो जाती हैं, बल्कि सच तो उल्टी बात है, इंद्रियां परिशुद्ध हो जाती हैं। इसलिए महावीर की आंखें जितनी निर्मलता से देखती हैं, आपकी आंखें नहीं देख सकतीं। इसलिए हम महावीर को अंधा नहीं कहते, द्रष्टा कहते हैं, आंख वाला कहते हैं। . बुद्ध के हाथ जितना छूते हैं, उतना आपके हाथ नहीं छू सकते। नहीं छू सकते इसलिए कि भीतर का जो मालिक है, वह बेहोश है। नौकर मालिक हो गये हैं। भीतर की जो बेहोशी है वह संवेदना को पूरा गहरा नहीं होने देती, पूरा शुद्ध नहीं होने देती। बुद्ध की आंखें ट्रांसपेरेंट हैं। आपकी आंखों में धुआं है। वह धुआं आपकी गुलामी से पैदा हो रहा है। अगर ठीक से हम समझें, तो हम अंधे हैं आंखें होते हुए भी; क्योंकि भीतर जो देख सकता था आंखों से, वह मूर्छित है, सोया हुआ है। बुद्ध या महावीर जागे हुए हैं, अमूर्छित हैं।
आंख सिर्फ बीच का काम करती है, मालकियत का नहीं। आंख अपनी तरफ से कछ भी जोडती नहीं, आंख अपनी तरफ से व्याख्या नहीं करती। भीतर जो है वह देखता है। आप अपनी खिड़की पर खड़े होकर बाहर की सड़क देख रहे हैं। खिड़की भी अगर इस देखने में कुछ अनुदान करने लगे, तो कठिनाई होगी। फिर आप वह न देख पायेंगे जो है। वह देखने लगेंगे जो खिड़की दिखाना चाहती है। लेकिन खिड़की कोई बाधा नहीं डालती, खिड़की सिर्फ राह है जहां से आप बाहर झांकते हैं।
आंख भी बुद्ध और महावीर के लिए सिर्फ एक मार्ग है, जहां से वे बाहर झांकते हैं। यह आंख सुझाती नहीं, क्या देखो; यह आंख कहती नहीं, ऐसा देखो; यह आंख कहती नहीं, ऐसा मत देखो। यह आंख सिर्फ शुद्ध मार्ग है।
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