Book Title: Mahavira Vani Part 1
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 477
________________ सूत्र से पहले एक प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है-पाने योग्य चीज को अधिकतर मात्रा में पाने की चेष्टा करना भी क्या लोभ है? अधिक धन प्राप्त करके अधिक दान करने को आप क्या कहेंगे? काम, क्रोधादि शत्रुओं में से आमतौर से लोभ के प्रति हमने थोड़ा अन्याय किया है। क्रोध और मोह जैसा संपूर्णतया अनिष्ट लोभ नहीं है। या तो लोभ को मैंने संपूर्णतया गलत समझा है। लोभ के संबंध में थोड़ी बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। ___ एक तो काम, क्रोध और मोह, लोभ के मुकाबले कुछ भी नहीं हैं। लोभ बहुत गहरी घटना है। छोटा बच्चा पैदा होता है, तब उसके भीतर काम नहीं होता, पर लोभ होता है। काम तो आयेगा बाद में, लेकिन लोभ जन्म के साथ होता है। क्रोध तो प्रासंगिक है। कभी परिस्थिति प्रतिकूल होती है तब उठता है। लेकिन परिस्थिति प्रतिकूल ही इसलिए मालूम पड़ती है कि लोभ भीतर है। ___ क्रोध लोभ का अनुसंग है। अगर भीतर लोभ न हो तो क्रोध नहीं होगा। जब आपके लोभ में कोई बाधा डालता है, इसलिए क्रोध पैदा होता है। जब आपके लोभ में कोई सहयोगी नहीं होता, विरोधी हो जाता है तब क्रोध पैदा होता है। लोभ ही क्रोध के मूल में है। गहरे देखें, तो काम का विस्तार, वासना का विस्तार भी लोभ का ही विस्तार है। बायोलाजिस्ट, जीवशास्त्री कहते हैं कि मनुष्य की मृत्यु व्यक्ति की तरह तो निश्चित है, लेकिन व्यक्ति मरना नहीं चाहता। अमरता भी एक लोभ है, मैं रहूं सदा, मैं कभी मिट न जाऊं। लेकिन इस शरीर को हम मिटते देखते हैं। अब तक कोई उपाय नहीं इस शरीर को बचाने का। जीवशास्त्री कहते हैं, इसलिए मनुष्य कामवासना को पकड़ता है। मैं नहीं बचूंगा तो भी कोई हर्ज नहीं, मेरा कोई बचेगा। मेरा यह शरीर नष्ट हो जायेगा, लेकिन इस शरीर के जीवाणु किसी और में जीवित रहेंगे। पुत्र की इच्छा, अमरता की ही इच्छा है। मेरा कोई हिस्सा जीता रहे, बना रहे-वह भी लोभ है। काम. लोभ का विस्तार है। क्रोध और काम, लोभ के मार्ग में आ गये अवरोध से पैदा हुई वितृष्णा है। मोह-जहां-जहां लोभ रुक जाता है, उसका नाम है-जिस-जिस पर लोभ रुक जाता है। __ समझ लें, क्रोध है बाधा, मोह है सहयोग। जो मेरे लोभ में बाधा डालता है, उस पर मुझे क्रोध आता है। जो मेरे लोभ में सहयोगी बनता है. उस पर मझे मोह आता है। वह लगता है, मेरा है। उससे ममता जगती है। इसलिए क्रोध, मोह और काम अत्यंत गहरे में 463 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548