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महावीर-वाणी
भाग : 1
है; तब सिर्फ धर्म की आशा हो सकती है; आचरण नहीं।
आचरण शक्ति मांगता है। इसलिए जिस विचारधारा में, बुढ़ापे को धर्म के आचरण की बात मान लिया गया, उस विचारधारा में बुढ़ापे में सिवाय भगवान से प्रार्थना करने के फिर कोई और उपाय बचता नहीं। इसलिए लोग फिर राम नाम लेते हैं आखिर में। फिर
और तो कुछ कर नहीं सकते, कुछ और तो हो ही नहीं सकता है। जो हो सकता था, वह सारी शक्ति गवां दी; जिससे हो सकता था, वह सारा समय खो दिया। जब शक्ति प्रवाह में थी और ऊर्जा जब शिखर पर थी, तब हम कचरा-कूड़ा बीनते रहे। और जब हाथ से सारी शक्तिखो गयी, तब हम आकाश के तारे छूने की सोचते हैं। तब सिर्फ हम आंख बांध कर, बंद करके राम नाम ले सकते हैं।
राम नाम अधिकतर धोखा है। धोखे का मतलब? राम नाम में धोखा है. ऐसा नहीं. राम नाम लेनेवाले में धोखा है। धोखा इसलिए है कि अब कुछ नहीं कर सकते, अब तो राम नाम ही सहारा है। साधु संन्यासी बिलकुल समझाते रहते हैं कि यह कलियुग है, अब कुछ कर तो सकते नहीं। अब तो बस राम नाम ही एक सहारा है। लेकिन मतलब इसका वही होता है जो आमतौर से होता है। किसी बात को आप नहीं जानते तो आप कहते हैं. सिर्फ भगवान ही जानता है। उसका मतलब, कोई नहीं जानता। राम नाम ही सहारा है। उसका ठीक मतलब कि अब कोई सहारा नहीं है। __ महावीर कहते हैं इसके पहले की शक्तियां खो जायें, उन्हें रूपांतरित कर लेना। इसके पहले...और बड़े मजे की बात यह है कि जो उन्हें रूपांतरित कर लेता है खोने के पहले, शायद उसे बुढ़ापा कभी नहीं सताता। क्योंकि बुढ़ापा वस्तुतः शारीरिक घटना कम और मानसिक घटना ज्यादा है। महावीर भी तो शरीर से बूढ़े हो जायेंगे, लेकिन मन से उनकी जवानी कभी नहीं खोती। ___ इसलिए हमने महावीर का कोई चित्र बुढ़ापे का नहीं बनाया, न कोई मूर्ति बुढ़ापे की बनायी। क्योंकि वह बनाना गलत है। महावीर बढे हए होंगे. और उनके शरीर पर झरियां पडी होंगी, क्योंकि शरीर किसी को भी क्षमा नहीं करता। __ और शरीर के नियम हैं, वह महावीर की फिक्र नहीं करता, किसी की फिक्र नहीं करता। उनकी आंखें भी कमजोर हो गयी होंगी, उनके पैर भी डगमगाने लगे होंगे, शायद उन्हें भी लकड़ी का सहारा लेना पड़ा हो—कुछ पता नहीं। लेकिन हमने कभी उनके बुढ़ापे की कोई मूर्ति नहीं बनायी, क्योंकि वह असत्य है। तथ्य तो हो सकती है, फैक्ट तो हो सकती है, लेकिन वह असत्य होगी।
महावीर के बाबत सच्ची खबर उससे न मिलेगी। वह भीतर से सदा जवान बने रहे, क्योंकि बुढ़ापा वासनाओं में खोई गयी शक्तियों का भीतरी परिणाम है। बाहर तो शरीर पर बढ़ापा आयेगा, वह समय की धारा में अपने आप घटित हो जायेगा, लेकिन भीतर जब शरीर की शक्तियां वासना में गवांयी जाती हैं, अधर्म में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर, जब धुरी टूट जाती है, तब भीतर भी एक बुढ़ापा आता है, एक दीनता। __ वासना में बिताये हुए आदमी का जीवन सबसे ज्यादा दुखद बुढ़ापे में हो जाता है। और बहुत कुरूप हो जाता है। क्योंकि धुरी टूट चुकी होती है और हाथ में सिवाय राख के कुछ भी नहीं होता, सिर्फ पापों की थोड़ी सी स्मृतियां होती हैं और वह भी सालती हैं। और समय व्यर्थ गया, उसकी भी पीड़ा कचोटती है।
इसलिए बुढ़ापा हमें सबसे ज्यादा कुरूप मालूम पड़ता है। होना नहीं चाहिए। क्योंकि बुढ़ापा तो शिखर है जीवन का, आखिरी । सर्वाधिक सुंदर होना चाहिए। इसलिए जब कभी कोई बूढ़ा आदमी जिंदगी में गलत रास्तों पर न चलकर सीधे सरल रास्तों से चला होता है, तो बूढापा बच्चों जैसा निदोष, पुनः हो जाता है। और बच्चे इतने निर्दोष नहीं हो सकते। क्योंकि अज्ञानी हैं। बुढ़ापा एक अनुभव से निखरता और गुजरता है। इसलिए बुढ़ापा जितना निर्दोष हो सकता है और कभी सफेद बालों का सिर पर छा जाना-अगर भीतर जीवन में भी इतनी शुभ्रता आती चली गयी हो, तो उस सौंदर्य की कोई उपमा नहीं है।
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