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धर्म का मार्ग : सत्य का सीधा साक्षात्
को भर सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति अपने ज्ञान से भी अपने अहंकार को ही भर रहा हो, तो यह प्रयास मूर्खतापूर्ण है। __ अज्ञान से तो लोग भूलें करते हैं, लेकिन ज्ञान से भी लोग भूल करते हैं। और बड़ी से बड़ी भूल जो ज्ञान से हो सकती है, वह यह कि हम अपने इस अहंकार को खड़ा करने के लिए गलत मार्ग चुन लें, जान-बूझकर। आपको भी खयाल होगा जिंदगी में, कई बार विषम मार्ग चुनने में बड़ा सुख मिलता है। कठिन है जो, लंबा है जो रास्ता, विघ्न जहां बहुत हैं, आपदाएं जहां हैं, विपत्तियां जहां हैं; उसे चुनने में बड़ा रस आता है।
रस क्या है ? जीतने का रस। जब रास्ते में कोई विपत्ति होती है, तब हम जीतते हैं। जब रास्ते में कोई विपत्ति नहीं होती, तो क्या खाक जीतना ! इसलिए जो लोग इस भांति चलते हैं, उनके जीवन में हजार जटिलताएं खड़ी हो जाती हैं। उनका सारा जीवन, एक ही गणित को मानकर चलता है; जहां विपत्ति हो, जहां बाधा हो, जहां अड़चन हो, जो असंभव मालूम पड़े, उसे करने में उन्हें रस आता है।
और इस जगत में अधर्म से असंभव कुछ भी नहीं। अधर्म इस जगत में सबसे असंभव है। एवरेस्ट चढ़ा जा सकता है, चांद पर उतरा जा सकता है, मंगल पर भी आदमी उतर ही जायेगा, लेकिन यह कुछ भी असंभव नहीं है। अधर्म सबसे असंभव है। अधर्म का मतलब क्या? कल मैंने आपको कहा, धर्म का अर्थ है स्वभाव; अधर्म का अर्थ है स्वभाव के विपरीत। निश्चित ही स्वभाव के विपरीत जाना सबसे असंभव बात है। आदमी स्वभाव के विपरीत जा ही कैसे सकता है? स्वभाव का अर्थ ही है कि जिसके विपरीत आपन जा सकें। जैसे आग ठंडी होना चाहे, तो यह स्वभाव के विपरीत हुआ। जैसे पानी ऊपर चढ़ना चाहे, तो यह स्वभाव के विपरीत हुआ। ऐसे ही अधर्म का अर्थ है, जो स्वभाव के विपरीत है, वही टेढ़ा-मेढ़ा है।
धर्म तो बहुत सरल और सीधा है; लेकिन मजा है कि धर्म में भी हम तभी उत्सुक होते हैं, जब वह टेढ़ा-मेढ़ा हो। सीधे धर्म में हम जरा भी उत्सुक नहीं होते। कोई बताये कि इतने उपवास करो, ऐसे खड़े रहो रातभर, नंगे रहो, कि कोड़े मारो शरीर को, कि सुखाओ, हड्डी-हड्डी हो जाओ; तब जरा रस आता है कि हां, यह कोई बात हुई।
जब धर्म भी टेढ़ा-मेढ़ा हो तो मूर्ख गाड़ीवान उत्सुक होता है। इसलिए ध्यान रखना, धर्म की तरफ जो उत्सुकता दिखाई पड़ती है, उसमें नब्बे-नब्बे भी कम—निन्यानबे प्रतिशत मूर्ख गाड़ीवान होते हैं। जिनका कुल कारण यह होता है कि कोई असंभव करने जैसा दिखाई पड़ रहा है। तब उनको बड़ा रस आता है। अगर उनको कहो कि आराम से बैठकर भी, छाया में भी, धर्म उपलब्ध हो सकता है, धर्म का सारा रस ही खो जायेगा। आसान हुआ, रस खो गया। बुद्धिमान आदमी को आसान हो तो रस बढ़ेगा। लेकिन अहंकारी आदमी को, आसान हो तो रस खो जायेगा।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
तपश्चर्या का अधिकतम रस टेढ़े-मेढ़ेपन के कारण है। जब आप अपने को सता रहे होते हैं, तब आपको लगता है, हां, कुछ कर रहे हैं। तब आपको लगता है, कुछ कर रहे हैं ! भूखे हैं, पानी नहीं पी रहे हैं; तब आपको लगता है, आप कुछ कर रहे हैं। क्यों? क्योंकि बड़ा दुर्गम है, बड़ा अस्वाभाविक है। भूख स्वाभाविक है, भूखा रह जाना अस्वाभाविक है। भूख सहज है, भूख के विपरीत लड़ना असहज है। लेकिन जितना असहज हो, धारा के विपरीत हो, उतना हमें लगता है कि हां, कुछ अहंकार को रस आ रहा है। इसलिए तपस्वियों से ज्यादा प्रखर अहंकार और कहीं खोजना मुश्किल है। झोपड़े में रह रहा है, तो अहंकार बढ़ेगा। झाड़ के नीचे है तो और बढ़ जायेगा। धूप में खड़ा रहे, तो और बढ़ जायेगा। अगर विश्राम करता ही नहीं, खड़ा ही रहता है तपस्वी, तो और बढ़ जायेगा।
यह सारी की सारी चेष्टा सिकंदर और नेपोलियन की चेष्टा से भिन्न नहीं है। लेकिन हमें दिखती है भिन्न, क्योंकि हमारी समझ नहीं
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