Book Title: Lakshya Banaye Safalta Paye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ आता है और तभी तुम किसी को फूलों का गुलदस्ता दे सकते हो, पर अपनी मधुर और सौम्य वाणी का गुलदस्ता रोज़ ही हर किसी को दे सकते हो। कभी भी किसी की आलोचना मत करो। माना कि किसी व्यक्ति के जीवन में कमियां होंगी, कुछ ख़ामियां होंगी, पर अगर हमने उसकी खामियों को गिनना-गिनाना शुरू कर दिया, तो उसके जीवन का कचरा हमारे जीवन में आते देर नहीं लगेगी। जो व्यक्ति किसी की निंदा नहीं करता, उसे किसी तीर्थ की ज़रूरत नहीं रहती। वह घर बैठे गंगा-स्नान कर लेता है। उसके लिए कठौती में ही गंगा है, क्योंकि मन निर्मल है, मन चंगा है। ___ हम स्वयं तो किसी की निंदा न ही करें, पर अगर कोई और व्यक्ति हमारी आलोचना करे, तो विचलित न हों। यह पड़ताल करें कि जो कहा जा रहा है, क्या उसमें कोई सच्चाई भी है? अगर सच है, तो स्वयं को सुधारें। अगर पलत है, तो चिंता किस बात की! सांच को कैसी आंच! भला, जब हम अपनी झूठी तारीफ़ भी प्रेम से सुन सकते हैं, तो अपनी सच्ची आलोचना को सुनने से क्यों कतराना? शांति से आलोचनाओं का भी सामना करना आना चाहिए। बिना मांगे सलाह कैसी ध्यान रखें, कभी भी किसी को बिन मांगे सलाह न दें। सीख उसी को दी जाए, जो सीख का सम्मान करता हो। कहा भी गया है कि बंदर को कभी सीख न दी जाए, क्योंकि उससे बया का घर ही तहस-नहस होता है। ‘सीख ताको दीजिए, जाको सीख सुहाय। सीख न दीजे बानरा, बया को घर जाय।' कहते हैं, एक बार किसी चौराहे पर दो युवक आपस में गुत्थम-गुत्था हो रहे थे। एक ने कहा, 'अब ज्यादा बकवास की, तो मैं तेरी बत्तीसी तोड़ दूंगा। दूसरे ने कहा, 'जा, तू क्या मेरी बत्तीसी तोड़ेगा, अगर मेरा घूसा पड़ गया, तो तेरे चौंसठ दांत तोड़ दूंगा।' एक आदमी उन दोनों की बगल में खड़ा उनकी तू-तू मैं-मैं सुन रहा था। उससे न रहा गया। उसने कहा, 'श्रीमान, ज़रा रुकिए। आपने कहा कि मैंने पूंसा मारा तो तेरे बत्तीस दांत टूट जाएंगे, यह बात तो समझ में आई, मगर यह बात समझ में नहीं आई कि दूसरे सज्जन 59 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122