Book Title: Lakshya Banaye Safalta Paye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 74
________________ बच्चा चार-पांच वर्ष का हो गया। एक दिन युवती की तबीयत बिगड़ने लगी, वह मरणासन्न स्थिति में पहुंच गई। उसने अपने घर के सारे सदस्यों को बुलाया और कहा, 'मैं निरंतर इसलिए रुग्ण होती जा रही हूं कि मैंने एक पवित्र आत्मा पर झूठा आरोप लगाया है।' घर वाले उसकी बात सुनकर आश्चर्यचकित थे, 'क्या कहती हो तुम?' युवती ने कहा, 'हाकुइन के पास जो बच्चा है, वह हाकुइन का नहीं है। मैंने अपने प्रेमी को निंदा और अपयश से बचाने के लिए संत हाकुइन का नाम ले लिया था, लेकिन वह संत इतना महान है कि उसने अपने पर लगाए गए इस आरोप का, इस झूठे लांछन को भी सह लिया, स्वीकार कर लिया। मैं मृत्यु से पहले इसका प्रायश्चित करना चाहती हूं।' युवती के परिजन फिर संत हाकुइन के पास पहुंचे, ये सारी बात बताई, सारा यथार्थ सुनाया। संत मुस्कराए और कहा, 'ओह, तो ऐसी बात है (इट्स दैट सो)! तुम अब क्या चाहते हो?' वे बोले, 'हम चाहते हैं कि बालक को वापस ले जाएं।' संत ने कहा, 'ओह, तो ऐसी बात है। ठीक है, ले जाओ।' यह जीवन की साधना की परम स्थिति है', जहां अगर इलज़ाम भी लगा, तब भी आनंद, इलज़ाम वापस ले लिया गया, तो भी आनंद, ओह, तो ऐसी बात है। जहां दोनों स्थितियों में समान आनंद का भाव बन रहा है, वहीं तो आदमी अभय-दशा में जीता है। जो आदमी यह सोचता है कि लोग क्या कहेंगे, समाज क्या कहेगा, वह आदमी अपने जीवन में समता और सामयिक को नहीं जी सकता। एक बहुत बड़े संत हुए, स्वामी आनंद, जिन्होंने हिन्दुस्तान में सबसे पहले 'नारी-निकेतन' खोला, जहां उपेक्षित, लांछित, विधवा और निराश्रित महिलाओं को आश्रय दिया जाता था। एक बार एक नारी उनके पास आई और कहा, “एक युवक के साथ मेरे प्रेम-संबंध थे। वह युवक मुझे छोड़कर भाग गया है। उसकी संतान मेरे पेट में है। मेरे पीछे और छः बहनें हैं। अगर उस युवक ने मुझे स्वीकार नहीं किया, तो मेरी उन बहनों 73 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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