Book Title: Lakshya Banaye Safalta Paye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

View full book text
Previous | Next

Page 102
________________ हारा है, जिसका मन टूट चुका है। मन डूबा तो नाव डूबी। मन में अगर लगता है कि तुम हार सकते हो, तो तुम्हारी यह मानसिकता ही तुम्हारे हार का कारण बनती है। मन के अगर जीतने की मनोदशा है, तो तुम हर हालत में जीतोगे। जीतने की कला जरूर तुम्हारी मदद करती है, किंतु तुम्हारी मनोदशा उसमें शक्तिदायक औषधि का संबल प्रदान करती है। वह व्यक्ति बूढ़ा है, जिस व्यक्ति का मन बूढ़ा हो चुका है। जो बूढ़ा होकर भी अपने मन को मजबूत रखता है, वह अभी भी मानो बचपन में है और अगर कोई बचपन में रहकर भी अपने मन को शिथिल कर चुका है, वह किशोर होकर भी बूढ़ा है। जीवन का मूल्यांकन आयु के द्वारा करने वाले दकियानूसी विचार के होते हैं। मन की मजबूती और मन की कमजोरी के आधार पर जीवन का मूल्यांकन करने वाले लोग ही स्वस्थ मनीषा के स्वामी हैं। अपने मन को कमजोर मत होने दो। अगर तन में रोग आ जाए, तब भी मन को मजबूत रखो। मन की मजबूती में ही रोगों से लड़ने की ताकत होती है। ___ परिस्थितियों का सामना करना सीखो। जीवन में विश्वास रखो कि मृत्यु केवल एक बार आती है और वक्त से पहले मृत्यु कभी भी नहीं आया करती। जिस क्षण हम भयभीत हो जाते हैं, उसी क्षण हमारा शरीर और हमारा मन ऐसे हो जाता है, जैसे किसी आदमी को दस्त लग रही हो। मन मजबूत रहा, तो सामने वाले आदमी के हाथ में लाठी होगी, पर अपने मजबूत मन के चलते पास में पड़े हुए ईंट और पत्थर को भी शस्त्र बना लोगे और उन लाठियों का सामना कर जाओगे। मन ही अगर कमजोर हो गया, हमारा अपने आप पर रहने वाला भरोसा और यकीन ही अगर मिट चुका है, तो भले ही तुम्हारे हाथ में लाठी होगी तब भी तुम मात खा बैठोगे। ___ अगर दो पहलवान आपस में कुश्ती लड़ते हैं, तो आपने सोचा कि एक पहलवान जीतता है और एक पहलवान हारता है। हारने वाला इसलिए नहीं हारता कि उसे जीतने की कला नहीं आती। इसलिए भी नहीं हारता कि उसके पुठे कमजोर होंगे। इसलिए भी नहीं हारता कि उसे लड़ना नहीं आता। वह अगर हारता है, तो केवल इसलिए कि उसका आत्मविश्वास, उसका मनोबल कमजोर पड़ चुका है। 101 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122