Book Title: Lakshya Banaye Safalta Paye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 71
________________ 1 भी, किसी भी क्षण, कुछ भी हो सकता है । अपनी सारी योग-शक्तियां लगाने के बावजूद मुझे लगा कि मेरे साथ कुछ ऐसा हो रहा है, जिसे मैं जीत नहीं पा रहा हूं । मेरे चित्त में भय की ग्रंथि बन चुकी थी । बाद में तो स्थिति यह हो गई कि अगर मैं जंगल से गुज़रता और तेज़ हवा भी चल पड़ती, तो मुझे लगता कुछ-न-कुछ गड़बड़ी है । मेरे लिए अब बड़ा मुश्किल हो गया । इसी तरह पांच-छः महीने ते कि तभी संयोग से मुझे एक ऐसी पुस्तक मिली कि मेरे मन का कायाकल्प हो गया । यह किताब थी 'श्रीमद्भगवद्गीता' । मैंने उसे खोला, दृष्टि दूसरे अध्याय के एक श्लोक पर जा टिकी । उस श्लोक ने मेरे चित्त की अभय-दशा को जाग्रत कर दिया, मेरी अंतरात्मा में पुरुषत्व को जगा दिया। मेरे मन में घर कर चुकी नपुंसकता दूर हो गई । मैंने स्वयं यह संकल्प लिया, खड़ा हुआ और कहा कि देखता हूं, अब कौन-सी ताकत है, जो मुझसे बढ़कर निकल सके। गीता का वह श्लोक मेरे जीवन के पुरुषार्थ को जगाने का परम आधार बना । वह सूत्र था - क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ, नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं, त्यक्त्वोतिष्ठा परंतपः ।। कृष्ण ने कहा, 'ओ मेरे पार्थ, अपने हृदय की तुच्छ दुर्बलता का त्याग कर। क्यों तू अपने आपको नपुंसक बना रहा है ? खड़ा हो और देख, तुझे युद्ध के लिए पुकारा जा रहा है । तू अपने कर्तव्य के लिए सन्नद्ध हो जा । जाग्रत हो और अभय - दशा को प्राप्त कर । मैं तेरे साथ हूं।' 1 पौरुष जगाएं, भय भगाएं गीता के इस श्लोक पर मुझ पर बड़ा उपकार रहा। इसी से उऋण होने के लिए ही मैंने दो वर्ष पूर्व श्रीमद्भगवद्गीता पर विशेष प्रवचन भी दिए। अगर व्यक्ति पुरुषत्वहीन हो जाए, पौरुष शिथिल पड़ जाए, तो उसके चित्त में भय की ग्रंथि बन जाती है। एक बार भय की ग्रंथि निर्मित हो जाए तो आदमी छोटा-सा निमित्त पाकर भी घबरा Jain Education International 70 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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