Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन वस्तुतः ज्ञान को परद्रव्यों से अतन्मय अर्थात् भिन्न जानना निश्चयनय है, और उसका परद्रव्यों से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध स्थापित करना अर्थात् केवलज्ञान लोकालोक को जानता है- ऐसा जानना/कहना-असद्भूत व्यवहारनय है। ___ श्रद्धा की अपेक्षा तन्मयता :-यहाँ श्रद्धान की अपेक्षा तन्मयता वाला अर्थ घाटित होता है। ज्ञान परद्रव्यों में यह मैं हूँ' – ऐसी श्रद्धा पूर्वक जाने, तो वह उनसे तन्मय है, और अपने को उनसे भिन्न जाने तो अतन्मय है। ___ यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि ज्ञान के ज्ञेयों के साथ जाननेरूप सम्बन्ध को व्यवहार कहा जा रहा है, केवलज्ञान पर्याय में प्रति समय अनन्त ज्ञेयों को दर्पणवत् प्रकाशित करने की सामर्थ्य को अर्थात् सर्वज्ञस्वभाव को व्यवहार नहीं कहा है। इसलिए केवली द्वारा लोकालोक को जानना व्यवहारनय से कहा जाने पर भी उनकी सर्वज्ञता पर अर्थात् क्रमबद्धपर्याय व्यवस्था पर कोई आँच नहीं आती। प्रश्न :13. केवली भगवान व्यवहारनय से लोकालोक को जानते हैं - इस कथन का क्या आशय है? 14. केवली भगवान व्यवहारनय से लोकालोक को जानते हैं - इस कथन में व्यवहारनय कहाँ और कैसे घटित होता है? जिनागम के अन्य प्रमाणों से क्रमबद्धपर्याय का पोषण गद्यांश8 तार्किक चूड़ामणि............. ...से निश्चित नहीं होते। (पृष्ठ 13 पैरा 5 से पृष्ठ 14 पैरा 4 तक) विचार बिन्दु :-आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में केवलज्ञान दर्पण में लोकालोक प्रतिबिम्बित होने का उल्लेख करते हुए वर्धमान भगवान को नमस्कार किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132