Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन
है। वस्तु का परिणमन व्यवस्थित क्रम में पूर्ण निश्चित होने पर भी स्वतंत्र है। अज्ञानी की इच्छा या सर्वज्ञ के ज्ञान के आधीन नहीं हैं। क्योंकि प्रत्येक वस्तु का परिणमन उसकी तत्समय की योग्यतानुसार होता है। अतः हमारे पुण्य-पाप भाव, स्वयं-नरक आदि गतियाँ सब अपनी योग्यतानुसार स्वकाल में स्वयं होते हैं।
इसप्रकार क्रमबद्ध परिणमन की व्यवस्था में वस्तु की स्वतन्त्रता खण्डित नहीं होती अपितु सुरक्षित रहती है।
यदि जिनवाणी को ही न माना जाए तो 24 तीर्थंकर, 5 परमेष्ठी, स्वर्गनरक, मोक्ष आदि भी कुछ भी मानना सम्भव न होगा।
प्रश्न :
,
19. यह जीव अपनी इच्छानुसार शुभभाव करके तीर्थंकर, चक्रवर्ती इन्द्र आदि हो सकता है या नहीं? कारण सहित स्पष्ट कीजिए?
20. वस्तु का परिणमन स्वतन्त्र है - इस कथन का क्या आशय है ?
****
इसीप्रकार चरणानुयोग..
विचार बिन्दु :
.
त्रिलक्षण परिणाम पद्धति गद्यांश 12
39
(पृष्ठ 20 पैरा 4 से पृष्ठ 22 पैरा 1 तक)
Jain Education International
1. सभयसार गाथा 308-311 की टीका एवं कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा 321-323 के आधार पर क्रमबद्ध परिणमन व्यवस्था पहले ही सिद्ध की जा चुकी है। प्रवचनसार गाथा 102 में प्रत्येक पर्याय के जन्मक्षण और नाशक्षण की बात भी कही गई है। प्रवचनसार गाथा 99 की टीका के माध्यम से द्रव्य के विस्तारक्रम का उदाहरण देकर प्रवाहक्रम को समझाया गया है।
. ध्रौव्यात्मक है।
विस्तारक्रम में प्रवर्तमान द्रव्य के सूक्ष्म अंश को प्रदेश कहते हैं तथा प्रवाह क्रम में प्रवर्तमान द्रव्य को परिणाम कहते हैं ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132