Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 120
________________ 118 क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका ज्ञान में झलकेगा - ऐसा नहीं है; अपितु ज्ञान में जिस ज्ञेय को जैसा जानने की योग्यता है, वह उसी ज्ञेय को वैसा ही जानेगा। इस नियम को निम्न उदाहरणों से समझा जा सकता है। सामने ज्ञेय है फिर भी ज्ञान नहीं होता। चश्मा या टोपी पहने हुए भी कुछ लोग कभी-कभी यह भूल जाते हैं और वे चश्मा या टोपी को खोजने लगते हैं। सामने कोई व्यक्ति खड़ा है परन्तु हमारा उपयोग अन्यत्र रहने के कारण हम उसे देख ही नहीं पाते। इसीप्रकार ज्ञेय कुछ और है और ज्ञान में कुछ और झलकता है। सामने रस्सी लटक रही हो तो भी कुछ लोगों को उसमें सर्प लटकने का भ्रम हो जाता है। कारागार में बन्द कामी को अन्धकार में भी अपनी प्रियतमा का मुख स्पष्ट दिखाई देता है। इन सभी घटनाओं से सिद्ध होता है कि ज्ञेय के अनुसार ज्ञान नहीं होता, अपितु ज्ञान के अनुसार ज्ञेय जाना जाता है। बौद्ध-दर्शन में ज्ञान उत्पन्न होने की प्रक्रिया को तदुत्पत्ति, तदाकार, और तदध्यवसाय के रूप में माना गया है। अर्थात् ज्ञान, ज्ञेय से उत्पन्न होता है, ज्ञेयाकार होता है, और ज्ञेय को जानता है। परन्तु जैन-दर्शन के अनुसार ज्ञान अपनी योग्यता से उत्पन्न होता है, ज्ञानकार ही रहता है, और ज्ञेय को जानते हुए भी ज्ञान में ही व्यवसाय करता है। ज्ञान कब किस ज्ञेय को किसरूप में जानेगा इसका नियम उसकी योग्यता से ही निश्चित होगा। ज्ञान की उत्पत्ति के नियम को परिभाषित करते हुए परीक्षा मुख अध्याय 2 के नवमें सूत्र में आचार्य माणिक्यनन्दि लिखते हैं। स्वावरणक्षयोपशमलक्षण योग्यता हि प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापयति विवक्षित ज्ञेय सम्बन्धी आवरण कर्म का क्षयोपशम ही योग्यता का लक्षण है और यह योग्यता ही सुनिश्चित करती है कि ज्ञान कब किसे कैसा जानेगा। प्रश्न 10. जैन-दर्शन के अनुसार अनेकान्त में भी अनेकान्त हैं - इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए? उत्तर :- जैन-दर्शन वस्तु को सर्वथा अनेकान्तरूप नहीं मानता, अपितु कथञ्चित् अनेकान्तरूप और कथञ्चित् एकान्तरूप मानता है। सर्वथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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