Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 119
________________ क्रमबद्धपर्याय : प्रासंगिक प्रश्नोत्तर नहीं होता, फिर भी मैं इस कार्य को कर सकता हूँ - इस प्रकार के अहंकार से पीड़ित रहता है । प्रश्न 8. जैन दर्शन में अकर्त्तावाद के स्वरूप की व्याख्या कीजिए ? - उत्तर :- जैन-दर्शन में अकर्त्तावाद के मुख्य चार बिन्दु है। (1) ईश्वर इस जगत का कर्ता नहीं है (2) एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की क्रिया का कर्त्ता नहीं है । (3) ज्ञानी अपने विकारी भावों का भी कर्ता नहीं है । (4) द्रव्य अपनी पर्याय का कर्ता होने पर भी उनके क्रम में परिवर्तन का कर्त्ता नहीं है। 117 अकर्त्तावाद को निम्न तीन रूपों में भी व्यक्त किया जाता है। (अ) स्वकर्त्तत्व :- प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायों का कर्त्ता है, अन्य द्रव्य की पर्यायों का कर्त्ता नहीं है । (ब) सहज कर्त्तत्व :- प्रत्येक द्रव्य परिणमन स्वभावी होने से उसमें प्रति समय नई-नई पर्यायें सहज ही अपने-आप उत्पन्न होती रहती हैं। इसके लिए उसे अलग से कुछ नहीं करना पड़ता । (स) अकर्त्तत्व: प्रत्येक द्रव्य पर- द्रव्य और उनकी पर्यायों का तथा अपनी पर्यायों के क्रम में परिवर्तन का कर्त्ता नहीं है । - इस प्रकार जैन दर्शन का अकर्त्तावाद मात्र ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व का खंडन नहीं करता, अपितु पर-द्रव्यों की पर्यायों तथा अपनी पर्यायों में परिवर्तन का भी निषेध करता है । द्रव्य अपनी पर्यायों का भी कर्ता नहीं है - इस अपेक्षा को क्रमबद्ध पर्याय प्रकरण में मुख्य नहीं किया गया है। प्रश्न 9. ज्ञान की उत्पत्ति की व्यवस्था के सम्बन्ध में जैन-दर्शन और बौद्धदर्शन की मान्यताओं की तुलनात्मक मीमांसा कीजिए? - उत्तर:- जैन दर्शन के अनुसार ज्ञेय के अनुसार नहीं ज्ञान होता, अपितु ज्ञान के अनुसार ज्ञेय जाना जाता है। इसका आशय यह है कि जैसा ज्ञेय होगा वैसा ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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