Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 117
________________ 115 क्रमबद्धपर्याय : प्रासंगिक प्रश्नोत्तर भाव = द्रव्य की शक्तियां, गुण, धर्म, स्वभाव आदि। मोह-राग-द्वेष, पुण्य-पाप, आदि विकारी भाव वस्तुतः द्रव्य के स्वचतुष्टय में प्रतिष्ठित नहीं हैं। वे पानी में पड़ी तेल की बूंद के समान ऊपर-ऊपर तैरते हैं; अर्थात् वे प्रवाहक्रम के कुछ अंशों की उपाधि हैं, अतः उन्हें औपाधिकभाव भी कहते हैं। उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक भाव स्वभाव के अवलम्बन से होते हैं अतः इन्हें स्वभाव-भाव कहते हैं। त्रिकाली ज्ञायकभाव की अपेक्षा नियमसार गाथा 50 में इन चारों भावों को पर-द्रव्य और पर-स्वभाव कहकर हेय कहा है। ' वस्तुतः काल तो समयवाची शब्द है। प्रत्येक द्रव्य और प्रत्येक गुण में प्रति समयवर्ती सूक्ष्म अंश-भेद होता है, जिसे एक समय की पर्याय कहा जाता है। ये उपशमादि चार भाव उस गुण की तत्समय की पर्यायगत योग्यता से स्वयं उत्पन्न होते हैं। कर्म की उपशमादि पर्यायें इनमें निमित्त होती हैं, अतः इन्हें नैमित्तिक भाव भी कहते हैं। किस कालाँश में कौनसा भाव उत्पन्न होगा- यह निश्चित हैं, तथा इसी नियम को क्रमबद्धपर्याय कहते हैं। जिसप्रकार साइकिल की चैन में अनेक कड़ियां होती हैं, जिनके बीच का स्थान खाली होता है। साइकिल चलाते समय एक-एक कड़ी के खाली स्थान में गेयर का एक-एक दांता खचित होता जाता है, उसीप्रकार द्रव्य का काल पक्ष साइकिल की अखण्ड चैन के समान है; उसकी कड़ियांप्रवाहक्रम का सूक्ष्म अंश मात्र हैं, तथा उपशमादि चार भावों से कथंञ्चित् भिन्न है। द्रव्यरूपी साइकिल निरन्तर गतिशील रहती है, अतः उसकी प्रत्येक कड़ी के खाली स्थान में उपशमादि चार भावरूपी दांता खचित होता जाता है। किस कड़ी में कौन सा दांता खचित होगा, अर्थात् किस काल (पर्याय) में कौन सा भाव खचित होगा - यह वस्तु की परिणमन व्यवस्था में निश्चित है। तदनुरूप पुरुषार्थ, निमित्त, आदि सभी कुछ निश्चित है, और सर्वज्ञ के ज्ञान में झलकता है। प्रश्न 6. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में दृष्टि का विषय क्या है? उत्तर :- दृष्टि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावमय अखण्ड वस्तु को ही भेद और अभेद का विकल्प किये बिना अपना विषय बनाती है। सर्वप्रथम ज्ञान द्वारा भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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