Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 106
________________ 104 क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका हुए बिना जानते हैं। अतः तन्मयता का अभाव बताने के लिए व्यवहार कहा है, पर को जानने का अभाव बताने के लिए नहीं। इस सम्बन्ध में परमात्मप्रकाश अध्याय गाथा 52 की टीका द्रष्टव्य है। प्रश्न 17.क्रमबद्धपर्याय मानने से पुरुषार्थव्यर्थहोने की आशंका का निराकरण कीजिए? उत्तर :- क्रमबद्धपर्याय को स्वीकार करने से पर-पदार्थों और पर्यायों की कर्ताबुद्धि टूटकर ज्ञायक स्वभाव की श्रद्धा प्रगट होती है, जो कि मोक्षमार्ग में सम्यक् पुरुषार्थ है। इसके बल से ही सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय की सच्ची श्रद्धा होती है तथा पर और पर्यायों की कद्बुद्धि टूटती है। भगवान के ज्ञान में प्रत्येक पर्याय स्पष्ट झलकती है, तो उसका पुरुषार्थ भी झलकता है क्योंकि पुरुषार्थ भी तो पर्याय है, अतः वह क्यों नहीं झलकेगा? यह बात क्रमबद्धपर्याय की परिभाषा में स्पष्ट कही गई है कि केवली भगवान, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि सभी समवायों को तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव आदि चतुष्टय को स्पष्ट जानते हैं; अतः पुरुषार्थ भी उनके ज्ञान में सुनिश्चित होने से पुरुषार्थ व्यर्थ होने के बदले सुनिश्चित है- ऐसा सिद्ध हुआ। ___ अज्ञानी स्वयं को पर-पदार्थों के परिणमन का कर्ता मानते हैं, अतः परकर्तृत्व के विकल्पों को तथा अपनी इच्छानुसार पर्यायों की उत्पत्ति के विकल्प को पुरुषार्थ समझते हैं; परन्तु यह उनकी विपरीत मान्यता है। पर और पर्यायों के । कर्तृत्व का विकल्प विपरीत पुरुषार्थ है, जो कि संसार का कारण है। क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा से ऐसा पुरुषार्थ नष्ट होता है तथा अकर्ता स्वभाव की अनुभूति का पुरुषार्थ प्रगट होता है। वस्तुतः क्रमबद्धपर्याय की स्वीकृति, सर्वज्ञता और ज्ञान स्वभाव की रुचि, तथा मुक्ति के मार्ग का सम्यक् पुरुषार्थ, - ये सभी एक ही भाव के पर्यायवाची नाम हैं। यही सम्यग्दर्शन है; उपशम, क्षयोपशम या क्षायिक भाव है; यही धर्म का प्रारम्भ है तथा भव-भ्रमण का अन्त है। अतः यह बात परम सत्य है कि जो जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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