Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन
प्रश्न:65. क्रमबद्धपर्याय की स्वीकृति में सम्यक्-एकान्त किसप्रकार है? 66. क्रमबद्धपर्याय का व्यापक स्वरूप क्या है? 67. काल की नियमितता का विश्वास किसे हो सकता है और किसे नहीं? 68. जगत् के उतावलेपन की वृति को उदाहरण सहित समझाइये? 69. क्रमबद्धपर्याय समझने के लिये क्या करना चाहिए?
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क्रमबद्धपर्याय सार्वभौमिक सत्य है
गद्यांश 26 क्रमबद्धपर्याय में....
................स्पष्ट किया गया है। (पृष्ठ 48 पैरा 7 से पृष्ठ 51 तक सम्पूर्ण) विचार बिन्दु :___ 1. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 321 से 323 में क्रमबद्ध परिणमन-व्यवस्था का स्पष्ट विवेचन होने पर भी कुछ लोग कहते हैं कि यह कथन तो मात्र गृहीत मिथ्यात्व छुड़ाने के लिए किया है, यह सार्वभौमिक सत्य नहीं, क्योंकि जो होना है वही होगा- यह विचार हमें पुरुषार्थहीन बनाता है।
2. उक्त मान्यता का निराकरण सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्रजी वाराणसी ने उक्त गाथाओं के भावार्थ में किया है। सर्वज्ञ के जान लेने से प्रत्येक पर्याय का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव नियत नहीं हुआ; बल्कि नियत होने से ही उन्होंने उसरूप में जाना है। पूर्व पर्याय से चाहे जो उत्तर पर्याय नहीं होती बल्कि नियत उत्तर पर्याय ही प्रगट होती है अन्यथा गेहूँ से आटा, कच्ची रोटी आदि पर्याय के बिना रोटी बनने का प्रसंग आएगा।
3. कुछ लोग प्रत्येक पर्याय के द्रव्य, क्षेत्र और भाव को नियत मानते हैं परन्तु काल को नियत मानने से उन्हें नियतवाद और पुरुषार्थ-हीनता का भय लगता है। परन्तु यदि द्रव्य, क्षेत्र और भाव नियत है तो काल-अनियत कैसे हो सकता? यदि काल को अनियत माना जाए तो अर्द्धपुद्गल परावर्तन से अधिक
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