Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 83
________________ क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन x 4. वजन तौलने की मशीन के उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि स्वचलित व्यवस्था ही उचित है और यही सत्य है। व्यवस्थापक द्वारा सही व्यवस्था नहीं हो सकती, उसमें बेईमानी हुए बिना नहीं रहती। व्यवस्थित व्यवस्था में बेईमानी होना सम्भव नहीं है। 5. पैसे के बल पर सभी व्यवस्थायें करने का अभिमान करने वालों को भी क्रमबद्धपर्याय की स्वीकृति होना कठिन है। 6.सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय के निर्णय से तात्कालिक लाभ तो यह होता है कि मति व्यवस्थित हो जाती है, कर्त्तत्व का अहंकार गल जाता है, सहज ज्ञाता-दृष्टापने का पुरुषार्थ जाग्रत हो जाता है, पर में परिवर्तन करने की वृद्धि मिट जाने से अनन्तानुबन्धी आकुलता भी नष्ट हो जाती है और अतीन्द्रिय निराकुल शान्ति प्रगट होती है। उसके बाद क्रमशः वीतराग परिणति की वृद्धि होते होते वह जीव पूर्ण वीतराग और सर्वज्ञ बन जाता है। परमात्मा बनने का यही मार्ग है। अतः मोक्षाभिलाषियों को मर पच कर भी सर्वज्ञता अर्थात् क्रमबद्धपर्याय का सच्चा स्वरूप समझना चाहिए। ___7. सर्वज्ञता का स्वरूप समझने के लिए सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा का स्वरूप समझ कर उसका आश्रय करना चाहिए। पर सन्मुख वृत्ति से अथवा सर्वज्ञपर्याय की सन्मुखता से सर्वज्ञता का स्वरूप समझ में नहीं आएगा। आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ से ही सर्वज्ञता का स्वरूप समझ में आता है। सभी जीव क्रमबद्धपर्याय और सर्वज्ञता का स्वरूप समझकर सम्यग्दर्शन प्राप्त करें और सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा में लीन होकर स्वयं सर्वज्ञ बनें – यही मङ्गलकामना है। प्रश्न :86. अव्यवस्थित मति का स्वरूप स्पष्ट कीजिये? 87. व्यवस्थाओं को क्रमबद्धपर्याय का स्वरूप समझना कठिन क्यों है? 88. स्वचलित व्यवस्था ही उचित और यथार्थ क्यों है? 89. क्रमबद्धपर्याय का निर्णय करने से क्या लाभ है? 90. मोक्षाभिलाषियों का क्या कर्तव्य है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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