Book Title: Krambaddha Paryaya Nirdeshika
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 84
________________ अध्याय 3 क्रमबद्धपर्याय : कुछ प्रश्नोत्तर 66 'क्रमबद्ध पर्याय: एक अनुशीलन" की चर्चा समाज में सघनरूप से चलने लगी, अतः इस सम्बन्ध में अनेक प्रश्न आने लगे । यद्यपि अनुशीलन खण्ड में इस विषय के सभी सम्भावित पहलुओं पर पर्याप्त चर्चा हो चुकी है, तथापि इन प्रश्नों पर भी विचार किया जा रहा है, ताकि विषय का सर्वाङ्गीण स्पष्टीकरण हो सके । अनुशीलन खंड के निर्देशों में सम्पूर्ण निबंध में चर्चित विचार-बिन्दु और उनसे सम्बन्धित प्रश्न दिये गये थे, ताकि उन प्रश्नों के सन्दर्भ में विचार-विश्लेषण की क्षमता विकसित हो सके। यहाँ प्रश्नोत्तर खण्ड में प्रश्न में गर्भित आशय एवं उत्तर के प्रमुख विचार बिन्दुओं का संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा है। प्रश्न 1 गर्भित आशय :- क्रमबद्धपर्याय के समर्थन में सर्वप्रथम आगम प्रमाण में श्री समयसार गाथा 308 से 311 गाथा की टीका की पंक्तियाँ प्रस्तुत की गई हैं। परन्तु वहाँ तो मात्र जीव - अजीव की भिन्नता की बात कही गई है, उसमें क्रमबद्धपर्याय का पोषण कैसे होता है? उत्तर : 1. जीव और अजीव अपने-अपने क्रमनियमित परिणामों से उत्पन्न होते हुए..... इस वाक्यांश में परिणामों का विशेषण 'क्रमनियमित' कहा गया है। 2. प्रत्येक द्रव्य के परिणमन को निश्चित क्रम में अर्थात् पूर्ण व्यवस्थित और निश्चित बताकर जीव को अकर्त्ता सिद्ध किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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