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किराताजुनीयम् और एक ही अर्थ देते हैं। एक पद्य के तीन अर्थ निकलते हैं; कुछ पद्यों में दो ही व्यञ्जनों का प्रयोग हुआ है तथा उन्होंने एक व्यञ्जन वाला भी एक श्लोक लिखा है जिसमें केवल 'न्' का ही प्रयोग हुआ है
न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु ।
नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत् ।। १५।१४ छन्द-छन्दों के प्रयोग में भी भारवि उतने ही बढ़े हुए हैं जितने कि. अलंकारों के प्रयोग में जिसके बीसों उदाहरण उनके काव्य से दिए जा सकते हैं। कालिदास के मुख्य छन्द ६ हैं, भारवि के १२ और माघ के १६ । भारवि ने वंशस्थ का प्रयोग सबसे अधिक सुन्दरता से किया है। इसके अतिरिक्त इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वैतालीय, द्रुतविलम्बित, प्रमिताक्षरा, प्रहर्षिणी, स्वगता, पुष्पिताया, औपछन्दसिक आदि का प्रगोग मिलता है ।
रस-भारवि वीर रस के सिद्धहस्त कवि हैं। द्वितीय सर्ग में भीम की उक्तियाँ वीर रस से मण्डित हैं। वह दुर्योधन की कृपा से नहीं प्रत्युत युद्ध करके. अपना राज्य लेना चाहता है। जिस प्रकार मृगेन्द्र (सिंह) अपने मारे हुए मदस्रावी हाथियों के द्वारा अपना आहार सम्पादन करता है, उसी प्रकार महान व्यक्ति संसार को अपने प्रताप से अभिभूत करता हुआ किसी अन्य की सहायता ते अपने अभ्युदय की अभिलाषा नहीं करता।
मदसिक्तमुखमंगाधिपः करिभिर्वतयते स्वयं हतैः।
लघयन्खलु तेजसा जगन्न महानिच्छति भूतिमन्यतः ।। २।१८ वीर रस से अतिरिक्त शृङ्गार का भी उन्होंने अच्छा वर्णन किया है |
काव्य-दोष यह सर्वविदित है कि कोई भी मानवी कृति सर्वथा दोषशून्य नहीं हो सकती है। यही बात महाकवि भारवि के किरातार्जुनीय पर भी लागू होती है। अनेक महनीय गुणों के साथ-साथ उनके काव्य में कतिपय दोष भी उपलब्ध होते हैं। उनका सबसे बड़ा दोष है-पाण्डित्य-प्रदर्शन के प्रति उनका अनुराग । राजनीति, नीति, कामशास्त्र, व्याकरण, छन्द, अलंकार इत्यादि विविध