Book Title: Kiratarjuniyam
Author(s): Mardi Mahakavi, Virendrakumar Sharma
Publisher: Jamuna Pathak Varanasi

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Page 116
________________ प्रथमः सर्गः ११३ प्रकार के । सुदुःसहं = अत्यन्त असम (असहनीय), जिसका सहन करना अत्यन्त कठिन है। निकारं = अपमान (तिरस्कार, अनादर) को। प्राप्य = प्राप्त करके, पापर। रतिम = सन्तोष को, धैर्य फो। अधिकुर्वते = स्वीकार कर लेते हैं, धारण कर लेते हैं। चेत् = यदि। हन्त = खेद है, दुःख है। मनस्विता = स्वाभिमानता, अभिमानशालिता। निराश्रया - आश्रयविहीन (होकर ), शरणरहित (होकर)। हता = मर गई (मर जायेगी) विनष्ट हो गई (विनष्ट हो जायेगी)। अनु०-तेजस्वियों ( तेजस्विजनों) में अग्रणी (प्रमुख) और यश (कीति) को ही धन समझने वाले आप (युधिष्ठिर ) जैसे व्यक्ति भी यदि इस प्रकार के अत्यन्त असहनीय अपमान को प्राप्त करके सन्तोष कर लें तो बड़े दुःख की बात है कि स्वाभिमानता आश्रयविहीन ( शरणरहित ) होकर विनष्ट हो बायेगी। सं० व्या०-पराक्रमः एवोचितः न सन्तोषः इत्युक्त्वा द्रोपदी युधिष्ठिरं प्रतीकाराय प्रेरयति। हे धर्मराज युधिष्ठिर ! तेजस्विजनानां मध्ये अग्रेसराः, यशः एव घनं मन्यमानाः भवत्सदृशाः महापुरुषाः अपि यदि एतादृशमसचं पराभवं (तिरस्कारं) प्राप्य सन्तोषं स्वीकुर्वते तदा मनस्विननेकशरणा मनस्विता कुत्र स्थास्यति । शरणाभावे सा तु विनष्टेव भविष्यतीति विचिन्त्य मे मनसि महान् विषादः विद्यते। अतः पराक्रमितव्यमिति भावः । स०-पुरः सरन्ति ये ते पुर:सराः ( उपपद समास)। यशः एव धनं येषां ते यशोधनाः (बहु०)। भवान् इव दृश्यन्ते ये ते भवादृशाः ( उपपद समास)। अतिशयेन दुःसहं सुदुःसहम् (प्रादि तत्पु०)। निर (निर्गतः अथवा नास्ति) आश्रयः यस्याः सा निगया (बहु०)। व्या०-सुदुःसहम्-सु-दुर् + सह+खल । निकारम्-नि++ घञ्। प्राप्य-प्र+आप+क्त्वा ल्यप् । रतिम्-रम् + तिन् । अधिकुघेते-अधि+ +लट , अन्यपुरुष, बहुवचन । हता-हन्+क। टि०-(१) दुर्योधन आदि कौरवों ने युधिष्ठिर आदि पाण्डवों के साथ अनेक प्रकार के अन्यायपूर्ण कार्य किए हैं-कपट-छल का आभय लेकर अनेक

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