Book Title: Kiratarjuniyam
Author(s): Mardi Mahakavi, Virendrakumar Sharma
Publisher: Jamuna Pathak Varanasi

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Page 124
________________ १२१ प्रथमः सर्गः । दीप्तेः संहारः इति दीप्तिसंहारः (षष्ठी तत्पु.), तेन जिझः इति दीप्तिसंहारजिह्मः, तम् (तृतीया तत्पु०)। शिथिलवसुम्-(सूर्यपक्षे) शिथिलाः वसवः (रश्मयः) यश्य-सः शिथिलवसुः, तम् (बहु०); (युधिष्ठिरपक्षे) शिथिलं वसु (धनं ) यस्य सः शिथिलवसुः, तम् (बहु०)। रिपुः तिमिरम् इव इति रिपुतिमिरम् ( उपमित कर्मधारय)। दिनस्य आदिः दिनादिः तस्मिन् (षष्ठी तत्पु०)। दिनं फरोतीति दिनकृत् तम् ( उपपद समास)। व्या०–'विधिसमयनियोगात्' में हेतौ पञ्चमी। उदस्य-उत् + अस+ क्वा-ल्यप् । उदीयमानं-उत् + ई+शानच् । समभ्येतु-उम् + अभि+ इ+लोद, अन्यपुरुष, एकवचन ।। टि०-(१) महाकवि भारवि ने सर्ग के प्रथम श्लोक में मङ्गलवाचक 'श्री' (श्रियः) शब्द का और सर्ग के अन्तिम श्लोक में मंगलवाचक 'लक्ष्मी' शब्द का प्रयोग किया है। (२) अपने भाषण का उपसंहार करती हुई द्रौपदी ने इस अन्तिम श्लोक में युधिष्ठिर के प्रति अपनी शुभ कामनायें व्यक्त की हैं (३) श्लेषानुप्राणित पूर्णोपमा अलंकार । यहाँ 'त्वाम्' (युधिष्ठिर) उपमेय, 'दिनकृतम्' (सूर्य) उपमान, 'इव' उपमावाचक और दीतिसंहार, वसु का शिथिल होना, विपत्ति समुद्र में डूबना, पुनः उदित होना इत्यादि युधिष्ठिर और सूर्य दोनों के साधारण धर्म हैं । श्लिष्ट पदों के प्रयोग के कारण अर्थ युधिष्ठिर और सूर्य दोनों पर लगता है । (४) सर्ग के अन्तिम दो या तीन पद्य भिन्न छन्द या छन्दों में रचे जाने चाहिए-इस नियम के निर्वाह के लिए यहाँ मालिनी छन्द है । इसका लक्षण यह है-ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः। इससे ज्ञात होता है कि इसमें दो नगण, एक मगण और दो यगण होते हैं। इसके चारों चरण सम (१५-१५ अक्षरों के) होते हैं । घण्टापथ-विधीति । 'विधिदैवम् । विधिविधाने दैवे च' इत्यमरः । समयः कालस्तयोनियोगानियमनाद्धेतोः । तयोरतिक्रमत्वादिति भावः । अगाघे दुस्तरे। आपत्पयोधिरिवेत्युपमितसमासः । दिनकृतमिवेति वक्ष्यमाणानुसारात्तस्मिन्नापत्पयोधौ मग्नम् । सूर्योऽपि सायं सागरे मज्जति परेधुरुन्मज्जतीत्यागमः । दीप्तिः प्रतापः आतपश्च । तस्य संहारेण जिह्मम् अप्रसन्नम् ।

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