Book Title: Kiratarjuniyam
Author(s): Mardi Mahakavi, Virendrakumar Sharma
Publisher: Jamuna Pathak Varanasi

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Page 76
________________ प्रथमः सर्गः तुमसे आने वाली विपचियों (भयों) की चिन्ता करता ही रहता है। आश्चर्य है ! बलवानों के साथ विरोध करने का परिणाम दुःखमय होता है । सं० व्यायद्यपि अधुना शत्रुरहितस्य भूमण्डलस्य सः दुर्योधनः अद्वितीयः शासकः वर्तते-कोऽपि तस्य अनिष्टं कर्तुं न समर्थः तथापि भवतः विपत्तीः आशङ्कमानः सः सुखेन स्थातुं न शक्नोति । स चिन्तयति यत् भवान् वनात् प्रत्यागत्य तस्य द्यूतक्रीडया उपार्जितं राज्यं गृहीष्यति तस्य अनिष्टं च करिष्यति । अहो महदाश्चर्य विद्यते बलवद्भिः सह शत्रुतां कृत्वा कोऽपि चिन्तारहितः भवितु न शक्नोति । स०-प्रलीना: भूपालाः यस्मिन् तत् प्रलीनभूपालम् (बहु०) । स्थिरा आयतिः यस्य तत् स्थिरायति (बहु०)। आ वारिधिभ्यः इति आवारिधि (अव्ययीभाव)। बलवता विरोधिता इति बलवद्विरोधिता (तृतीया तत्पु०)। दुर् अन्तः यस्याः सा दुरन्ता (बहु०)। व्या०-प्रशासत्-प्र+शास्+ शतृ । एष्यती:-इ+लूट शत, द्वितीया, बहुवचन । टि० - (१) पूर्ववर्ती इलोकों में दुर्योधन की महत्ता का वर्णन करके गुप्तचर इस श्लोक में यह बतला रहा है कि पूर्वोक्त सब कुछ होते हुए भी दुर्योधन आपकी बराबरी नहीं कर सकता है। आप लोग दुर्योधन की अपेक्षा अधिक बलशाली हैं। दुर्योधन आप से सर्वदा भयभीत रहता है इस तथ्य से ही आपका बल सूचित होता है। आप अपने बल को पहचाने । निराशा की कोई बात नहीं है। दुर्योधन को पराजित करने का उद्योग आप को यथासमय अवश्य करना चाहिए। (२) सामान्य कथन के द्वारा विशेष कथन का समयन होने से अर्थान्तरन्यास अंलकार है। घण्टापथ-प्रलीनेति । स दुर्योधनः प्रलोनभूपालम् निःसपत्नमित्यर्थः । स्थिरायति चिरस्थायीत्यर्थः । भुवो मण्डलम् । आ वारिधिभ्यः आवारिधि । आङ मर्यादाभिविध्योः' इति अव्ययीभावः। प्रशासत् आज्ञापयन्नपि । 'जक्षित्यादयः षट्' इत्यभ्यस्तसंज्ञा । 'नाम्यस्ताच्छतुः' इति नुमागमप्रतिषेधः ।

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