Book Title: Kiratarjuniyam
Author(s): Mardi Mahakavi, Virendrakumar Sharma
Publisher: Jamuna Pathak Varanasi

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Page 62
________________ प्रथम सगः ५९ टि०- ( १ ) इस श्लोक में दुर्योधन की महासमृद्धि का प्रतिपादन किया गया है । राजाओं के द्वारा उपहार में दिए गए हाथियों के मदजल से आँगन का कीचड़युक्त होना और राजाओं के रथों और घोड़ों से आँगन का भरा हुआ होना- इससे दुर्योधन की विशाल सम्पत्ति का अनुमान लगाया जा सकता है । सम्पत्ति चारों ओर से उसके पास एकत्र हो रही है । उपहार और कर देने वाले राजाओं से उसका आँगन भरा रहता है । ( २ ) सप्तपर्ण (सप्तच्छद, अयुग्मच्छद) वृक्ष की प्रत्येक डाली में सात पत्ते होते हैं । इसके यह नाम पड़ने का यही कारण है । सप्तपर्ण के पुप्प की गन्ध बड़ी उग्र होती है । यह पुष्प अपने निकटस्थ व्यक्तियों के शिरों में वेदना उत्पन्न कर देता है । ( ३ ) नकार की अनेक बार ( असकृत् ) आवृत्ति होने के कारण वृत्रनुप्रास अलंकार है । समृद्धि का वर्णन होने के कारण उदात्त अलंकार भी है । - घण्टापथ — अनेकेति । अयुग्मच्छदस्य सप्तपर्णपुष्पस्य गन्ध इव गन्धो यत्यासौ अयुग्मच्छद्गन्धिः । ' सप्तम्युपमान' – इत्यादिना बहुव्रीहिरुत्तरपदलोपश्च । 'उपमानाच्च' इति समासान्त इकारः । नृपाणामुपायनान्युपहारभूता ये दन्तिनस्तेर्षा नृपोपायनदन्तिनां मदः । ' उपायनमुपग्राह्यमुपहारस्तथोपदा' इत्यमरः । गज्ञामपत्यानि पुमांसो राजन्याः क्षत्रियाः । ' राजश्वशुराद्यत्' इति यत्प्रत्ययः । राज्ञोऽपत्ये नातिग्रहणादन् । रथाश्चाश्वाश्च रथाश्वम् । सेनाङ्गत्वादेकवद्भावः । अनेकेषां राजन्यानां रथाश्वेन संकुलं व्याप्तं अनेकराजन्यरथाश्वसङ्कुलम् तदीयम् आस्थाननिकेतनाजिरं सभामण्डपाङ्गणं भृशम् अत्यर्थम् आर्द्रतां पंकिलत्वं नयति । एतेन महासमृद्धिरस्योक्ता । एवोदात्तालङ्कारः । तथा चालंकारसूत्रम् —'समृद्धिमद्वस्तुवर्णनमुदात्त' इति ॥ १६ ॥ अत सुखेन लभ्या दधतः कृषीवलैरकृष्टपच्या इव सस्यसम्पदः । वितन्वति क्षेममदेवमातृकाश्चिराय तस्मिन् कुरवश्चकासति ॥१७॥ अ० - चिराय तस्मिन् क्षेमं वितन्वति अदेवमातृकाः कुरवः अकृष्टपच्या इव कृषावलैः सुखेन लभ्याः सस्यसम्पदः दधतः चकासति ।

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