Book Title: Kiratarjuniyam
Author(s): Mardi Mahakavi, Virendrakumar Sharma
Publisher: Jamuna Pathak Varanasi

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Page 44
________________ प्रथमः सर्गः तन् + लट् । समुन्नयन-सम् + उत् + नी+ शतृ । 'महात्मभिः' में 'सहयुक्तेऽप्रधाने' सूत्र से तृतीया हुई। टि०-(१) दुर्योधन बड़ा कुटिल है । द्यूतक्रीड़ा के छल से उसने आप के राज्य को तो हड़प ही लिया, अब वह सद्गुणों के द्वारा भी आप का अतिक्रमण करना चाहता है । वह आप को सर्वत्र नीचा दिखलाना चाहता है। वह चाहता है कि प्रजा आप की अपेक्षा उसे अधिक गुणवान् समझे, उसमें अधिक अनुरक्त हो । आप के साथ विरोध करने से उसे लाभ ही हुआ। यदि वह आप के साथ विरोध न करता तो वह दान, दया, दाक्षिण्यादि गुणों को अपना कर धवल कीर्ति कैसे अर्जित करता? सच है महापुरुपों के साथ शत्रुता करना भी दुर्जनों की मित्रता की अपेक्षा अधिक अच्छा होता है। (२) सामान्य के द्वारा विशेष का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलंकार है । घण्टापथ-तथापीति । तथापि साशकोऽपि । जिह्मो वक्र: । वञ्चक इति यावत् । स दुर्योधनो भवज्जिगीषया गुणैर्भवन्तमाक्रमितुमिच्छयेत्यर्थः। "हेतौ' इति तृतीया । गुणसम्पदा दानदाचिण्यादिगुणगरिम्णा करणेन । शुभ्रं यशः तनोति । स खलो गुणलोभनीयां त्वत्सम्पदमात्मसात्कर्तुं त्वत्तोऽपि गुणवत्तामात्मनः प्रकटयतीत्यर्थः । नन्वेवं गुणिनः सतोऽपि सज्जनविरोधो महानत्यस्य दोष इत्याशय सोऽपि सत्संसर्गालाभे नीचसङ्गमावरमुत्कर्षावहत्वादित्याह-समिति । तथाहि भूतिं समुन्नयन् उत्कर्षमानादयन् । 'लटः शतृशानचौ' इत्यादिना शतृप्रत्ययः । पुनर्लङग्रहणसामर्थ्यात् प्रथमासामानाधिकरण्यम् । महात्मभिः समं सहेत्यर्थः । 'साकं सत्रा समं सह' इत्यमरः । अनार्यसङ्गमात् दुर्जनसंसर्गात् । 'पञ्चमी विभक्ते' इति पञ्चमी । विरोधोऽपि वरं मनाकप्रियः । 'देवाद् वृते वरः श्रेष्ठे त्रिषु वलीबे मनाक प्रिये' इत्यमरः । अत्र मैव्यपेक्षया मनाकप्रियत्वं विरोधस्य । 'भूतिं समुन्नयन्' इत्यस्य पूर्ववाक्यान्वये समाप्तस्य वाक्यार्थस्य पुनरादानात समासपुनरात्ताख्यानदोषापत्तिः । तदुक्तं काव्यप्रकाशे 'समाप्तपुनरादानात् समाप्तपुनरात्तकम्' इति । न च वाक्यान्तरमेतत् , येनोक्तदोषपरिहारः स्यात् । अर्थान्तरन्यासालङ्कारः। स च भूतिं समुन्नयनस्य पदार्थविशेषणद्वारा विरोधवत्त्वं प्रति हेतुत्वाभिधानरूपकाध्यलिङ्गानुप्राणित इति ।।८।।

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