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किरातार्जुनीयम् लम्भिताः प्रयुक्त, प्रयोग किए गए। सम्यग्विनियोगसक्रिया: उचित विनियोग (प्रयोग) के द्वारा जिनका सत्कार (सम्मान किया गया है वे; सनुचित ( ठीक-ठीक ) विनियोग (प्रयोग) ही है सत्कार जिनका वे| उपाया:राजनीति के चार उपाय (साम, दान, टण्ड, भेद)। संघर्षम् उपेत्य इव = मानो परस्पर संघर्ष (स्पर्धाभाव) को प्राप्त करके, परस्पर स्पर्धाभाव को प्राप्त हुए से। परिवृहितायती:- विकासशील है भविष्य (आयति ) जिनका ऐसी, भविष्य में वृद्धि को प्राप्त होने वाली, स्थिर भविष्य वाली। अर्थसम्पदः = धनधान्यादि सम्पत्तियों को, धन-सम्पत्तियों को, सम्पत्तियों को, धनों को। अनारतं = निरन्तर। फलन्ति = उत्पन्न करते हैं।
अनु०-उस (दुर्योधन) के द्वारा उचित स्थानों में सनुचित विभाग करके प्रयुक्त किए गए और उचित प्रयोग (विनियोग) के द्वारा समाहत (सत्कृत, अनुगृहीत) हुए उपाय (साम, दान, दंड, भेद) मानो परस्पर स्पर्धाभाव को प्राप्त हुए से भविष्य में वृद्धि को प्राप्त होने वाली (स्थिर भविष्य वाली)। धनसम्पत्तियों को निरन्तर उत्पन्न करते हैं । ___ सं० व्या० अस्मिन् श्लोके महाकविः सामदानदण्डभेदानां चतुर्णामुपायानां सम्यकप्रयोगत्य फलवत्तां दर्शयति । तेन दुर्योधनेन समुचितत्यानेषु यथोचितं विभाजनं कृत्रा सम्यक प्रयुक्ताः तथा तमुचितप्रयोगेण सस्कृताः सामदानदण्डमेदरूपाः चत्वारः उपायाः परस्परं स्पर्धमानाः इव तस्मै दुर्योधनाय राज्ञे प्रथितोत्तरकालाः (स्थिराः) अर्थसम्पत्ती: निरन्तरमुपादयन्ति (निरन्तरं तस्मै धनवृद्धि कुर्वन्ति)।
स०-विनियोगः एव सक्रियाः (कर्मधारय) अथवा-विनियोगः सक्रिया येषां ते (बहु०)। परिवहिता आयतिः यासां ताः परिबृंहितायती: (बहु०)। अर्थानां सम्पद इति ताः अर्यसम्पदः (तत्पु०) अथवा-अर्थाः एव सम्पदः, ताः अर्थसम्पदः (कर्मधारय)। न आरतम् इति अनारतम् (ना समास)। __ व्याः-विभव्य-वि+ भन् + वस्वा-ल्यप् । लम्भिता:-लम्भ+ णिच् + छ। उपेत्य-उप++क्त्वा-ल्यप । फलन्ति-फल+ल्ट, अन्यपुरुष,