Book Title: Kiratarjuniyam
Author(s): Mardi Mahakavi, Virendrakumar Sharma
Publisher: Jamuna Pathak Varanasi

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Page 55
________________ ફ્ર किरातार्जुनीयम् ( समझकर ) । गुरूपदिष्टेन = गुरुओ ( मनु इत्यादि धर्माचार्यों) के द्वारा उपदिष्ट ( बतलाये गये ) । दण्डेन = दण्ड के द्वारा । रिपौ सुते अपि वा = शत्रु अथवा मित्र में स्थित | धर्मविप्लवं = धर्म ( कर्त्तव्यं) के व्यतिक्रम (उल्लंघन ) को ( = अधर्म को ) । निहन्ति = नष्ट करता है, निवृत्त करता है, दूर करता है अनु० - इन्द्रियों को वशं (नियन्त्रण) में रखने वाला वह ( दुर्योधन ) धन प्राप्त करने की इच्छा से नहीं और न क्रोध से ( दण्ड देता है ) किन्तु ( लोभ, क्रोध इत्यादि ) कारणों से रहित होकर 'यह मेरा धर्म है' यही (समझकर) गुरुओ (मनु इत्यादि धर्माचायों ) के द्वारा बतलाये गए दण्ड के द्वारा शत्रु अथवा मित्र में स्थित धर्मोल्लंघन ( अधर्म ) का निवारण करता है । 1 सं० व्या० - दुर्योधनस्य दण्डनीतिप्रयोगः निरूपितः अस्मिन् श्लोके । जितेन्द्रियः सः दुर्योधनः केनापि लोभेन वा क्रोधाभिभूतः वा न कमपि दण्डयति । लोभ क्रोधद्वेषादिकारणरहितः सन् 'दुष्टानां दण्डनं साधूनां रक्षणं' नृपाणां धर्मः इति मासः दुष्टान् दण्डयति । दण्डप्रयोगे सः स्वेच्छाचारी नास्ति । मन्त्रादिधर्माचार्यैः उपदिष्टेन दण्डेन सः दुष्टान् दण्डयति । दण्डप्रयोगे सः कदापि पक्षपातं न करोति । सः सर्वान् समदृष्ट्या पश्यति । येन केनापि धर्मस्य उल्लंघनं कृत्वा अधर्माचरणं क्रियते स पुरुषः दण्डस्य पात्रं ( दण्ड्यः ) भवति, सः शत्रुर्वा भवेत् पुत्रो वा । स०—निवृतं कारणं यस्मात् सः (बहु० ) । स्वस्य धर्मः स्वधर्मः (तत्पु० ) गुरुभिः उपदिष्टेन ( तत्पु० ) । धर्मस्य विप्लवम् ( तत्पु० ) । व्या०—वशः अस्ति अस्त्रं इति वशी । वश + इनिः (मत्र) । वाञ्छन्वाञ्छ् + शतृ । निहन्ति - नि + न् + लट, अन्यपुरुष, एकवचन । टि०- ( १ ) - इस श्लोक में दुर्योधन की दण्डनीति का निरूपण किया गया है । दुर्योधन का मुख्य उद्देश्य प्रजा को प्रसन्न करना है ( जिसमे प्रजा पाण्डव को भूलकर उसनें अनुरक्त हो जावे) और वह इस तथ्य को जानता है कि पक्षपात को छोड़कर जो दण्डविधान किया जाता है, वह प्रजा की प्रसन्नता का कारण अस्तु, दुर्योधन की दण्डनीति की मुख्य विशेषतायें ये हैं— (क) होता है । वह लोभ अथवा क्रोध के वशीभूत होकर किसी को दण्ड नहीं देता ( ख ) दण्ड

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