Book Title: Khartargaccha Pratishtha Lekh Sangraha
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 5
________________ मानवता के विकास में जितना महत्त्वपूर्ण स्थान इतिहास का है उतना ही महत्त्वपूर्ण स्थान साक्ष्यों का इतिहास में है । प्रामाणिकता के अभाव में इतिहास धीरे-धीरे किंवदंती बन जाता है और उस पर भविष्य की पीढियाँ विश्वास नहीं करतीं । इतिहास के साक्ष्यों की एक कड़ी है मूर्तियों पर अंकित प्रतिष्ठा लेख। जैन प्रतिमाओं पर अंकित लेख महत्त्वपूर्ण सूचनाओं के स्रोत होते हैं । प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के लेखों से अनेक महत्त्वपूर्ण बिन्दु स्वतः प्रमाणित हो जाते हैं । उनके निर्माता उपासकों का समय, जाति और गोत्र तथा आचार्यों एवं पदवीधारी साधुजनों का समय निर्धारण होने के साथ गुरु परम्परा भी निश्चित हो जाती है। उनके गच्छ का भी निर्धारण हो जाता है । कई-कई लेखों में उस काल के राजाओं के नामोल्लेख और ग्राम-नगरों के नामोल्लेख भी प्राप्त होते हैं । कई विस्तृत शिलालेख प्रशस्तियों में उस राजवंश का और निर्माताओं के वंश का वर्णन भी होता है और उनके कार्यकलापों का भी । (प्रकाशकीय अर्वाचीन जैन परम्परा में इसके संकलन को महत्त्व देना आरम्भ हुआ था किन्तु कष्ट साध्य कार्य होने से पिछली अर्धशती में इस कार्य की उपेक्षा उसी प्रकार हुई है जिस प्रकार जैन इतिहास संबंधी अन्वेषण कार्य की । खरतरगच्छ के इतिहास के प्रकाशन की महती योजना की दूसरी कड़ी के रूप में 'खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह' पुस्तक अपने पाठकों के समक्ष रखते हुए हमें अतीव प्रसन्नता हो रही है। इस योजना को क्रियान्वित व सम्पन्न करने के लिए हम इसके मनीषी लेखकसंपादक साहित्य वाचस्पति महोपाध्याय विनयसागरजी के प्रति आभार प्रकट करते हैं । साथ ही विभिन्न संस्थाओं, स्थानीय संघों व व्यक्तिगत दानदाताओं के प्रति भी आभार प्रकट करते हैं जिन्होंने श्रद्धेय साधु-साध्वियों की प्रेरणा से इस प्रकाशन में सहयोग प्रदान किया है। हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि यह ग्रन्थ पाठकों के लिए रोचक व शिक्षाप्रद सिद्ध होगा और शोधार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी तथा प्रेरक भी । जै मैनेजिंग ट्रस्टी देवेन्द्र राज मेहता संस्थापक एम०एस०पी०एस०जी० चेरिटेबल ट्रस्ट श्री जिनकान्तिसागरसूरि स्मारक ट्रस्ट प्राकृत भारती अकादमी जयपुर Jain Education International जयपुर डॉ० यू.सी. जैन महामंत्री माण्डवला For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org

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