Book Title: Khartargaccha Pratishtha Lekh Sangraha
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 19
________________ अतीत का इतिहास भी ज्ञात हो जाता है । विगत शाताब्दी में कई विद्वानों के द्वारा शिलालेखों के संग्रह प्रकाशित किए गए हैं जिन्होंने भारतीय इतिहास एवं विविध धर्मों के इतिहास के लेखन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। जैन धर्म में भी प्राचीन शिलालेखों के संग्रह के रूप में श्री पूरणचन्द नाहर, श्री अगरचंद नाहटा, श्री भंवरलाल नाहटा आदि विद्वानों ने उल्लेखनीय प्रयास किए हैं। लेकिन ऐसे प्रयासों की आवश्यकता फिर भी बनी रहती है। जैन धर्म के यशस्वी विद्वान महोपाध्याय श्री विनयसागर जी द्वारा सम्पादित संग्रह इसी क्षेत्र में किया गया एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है। उन्होंने जैन धर्म की एक विशिष्ट शाखा खरतरगच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं एवं चरणों के शिलालेखों का इसमें संग्रह किया है। I जैन धर्म के सार्वभौम विकास में खरतरगच्छ का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । ' खरतर ' शब्द अपने आप में बड़ा विशद, सूक्ष्म और गरिमापूर्ण अर्थ लिये है । 'खर' का अर्थ है तीव्र, तेजोमय, गतिमय, शक्तिमय । खर के आगे तर जुड़कर उसकी तीव्रता, गतिमयता और शक्तिमत्ता को और बढ़ा देता है । बड़ा प्रेरणास्प्रद है यह शब्द जिसने युग-युग तक धर्मानुप्राणित समाज को स्फूर्ति प्रदान की है। महामहिम आचार्य जिनेश्वरसूरि इस आध्यात्मिक परम्परा के सूत्रधार रहे हैं। चारों दादा गुरुदेव - श्रीजिनदत्तसूरि, मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि, श्री जिनकुशलसूरि एवं श्रीजिनचन्द्रसूरि तो इस गच्छ के सर्वश्रद्धेय आचार्य दादा गुरुदेव के रूप में विख्यात रहे हैं, साथ ही आचार्य श्री अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, महोपाध्याय समयसुन्दर, योगीराज आनन्दघन, उपाध्याय देवचन्द्र आदि इस गच्छ की महान विभूतियों में हैं । साहित्य सेवा के क्षेत्र में तो यह गच्छ सिरमौर रहा है। मंदिर निर्माण, प्रतिमा निर्माण एवं प्रतिष्ठाओं के क्षेत्र में भी यह गच्छ सम्पूर्ण श्वेताम्बर समाज में अग्रणी रहा है। खरतरगच्छाचार्यों की पावन निश्रा में हजारों जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई। देश के कई प्रमुख तीर्थ नाकोड़ा, सम्मेतशिखर, पावापुरी, क्षत्रियकुंड, चम्पापुरी, जैसलमेर आदि अनेक तीर्थ के प्रतिष्ठापक खरतरगच्छाचार्य ही थे । जैन तीर्थों की समुचित व्यवस्था के लिए सेठ आणंदजी कल्याण जी पेढ़ी जैसी राष्ट्रीय प्रबन्ध समितियाँ इस गच्छ ने ही स्थापित की हैं। तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ जो सर्वत्र पूजनीय हैं, किन्तु गुरुओं की मूर्तियों और चरण पादुकाओं को प्रतिष्ठित करने का श्रेय खरतरगच्छ को ही है । लम्बे अर्से से आवश्यकता थी खरतरगच्छाचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं के शिलालेखों के प्रामाणिक संकलन के प्रकाशन की । प्रस्तुत ग्रन्थ में इस आवश्यकता की अप्रतिम आपूर्ति है । Jain Education International प्रस्तावना For Personal & Private Use Only IX www.jainelibrary.org

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