________________
से प्रारम्भ होकर १४वीं शताब्दी तक तो चला ही है किन्तु १७वीं शताब्दी में भी इस शब्द के कहीं-कहीं उल्लेख प्राप्त होते हैं। जैसे - लेखाङ्क ११९४ और १२०५ में अहमदाबाद और पाटण के लेखों में 'शान्तिवीरविधिचैत्य' तथा लेखाङ्क ११९५, ११९७, ११९८ में 'शान्तिनाथविधिचैत्य' अहमदाबाद के उल्लेख प्राप्त होते हैं। लेखों का वैशिष्ट्य .
___ इस लेख संग्रह में २७६० लेखों का संग्रह किया गया है। ये लेख विक्रम सम्वत् ११६२ से लेकर मुख्यतः २०वीं शताब्दी के ही हैं। इन लेखों में जिन विशिष्ट-विशिष्ट बातों का उल्लेख हुआ है उनका सारांश यहाँ देना अभीष्ट है। लेखाङ्क १ - यह चित्तौड़ में विधि पक्ष द्वारा निर्मापित महावीर चैत्य की प्रशस्ति है। इसकी प्रतिष्ठा विक्रम सम्वत् ११६२ आचार्य जिनवल्लभसूरि ने करवाई थी। ७८ पद्य होने के कारण यह अष्टसप्तति के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस प्रशस्ति का शिलालेख आज अनुपलब्ध है, केवल हस्तप्रति ही प्राप्त है। इस प्रशस्ति को प्रशस्ति के आलोक में जिनवल्लभगणि ने अपने, जीवन की लघ-आत्म कथा लिखी हो. यह कहना अधिक उपयुक्त है। इस प्रकार की आत्मकथारूप कृति इत:पूर्व जैन साहित्य में उपलब्ध नहीं है। लेख का सारांश है :
___कूर्चपुरगच्छीय श्री जिनेश्वरसूरि का मैं शिष्य था, उनसे गणिपद भी प्राप्त किया था और अभयदेवसूरि से आगम-वाचना लेकर मैंने उनसे उप-सम्पदा ग्रहण की थी। मैं क्रमशः चित्तौड़ आया। यहाँ चैत्यवासियों को जोर था। मेरे द्वारा शास्त्र-सम्मत विधि-पक्ष, विधि-चैत्य और सुविहित साधुओं का स्वरूप समझ कर बहुत से लोग मेरे उपासक हो गये थे। मेरे द्वारा प्रतिबोधित विधिपथानुयायी कई श्रेष्ठियों के नाम भी दिये हैं:- धर्कटवंशीय सोमिलक, वर्द्धमान का पुत्र वीरक, पल्लिकापुरी (पाली) में प्रख्यात प्रद्युम्नवंशीय माणिक्य का पुत्र सुमति, क्षेमसरीय (संभवतः खींवसर निवासी) भिषग्वर सर्वदेव और उसके तीनों पुत्र रासल, धन्धक एवं वीरक, खण्डेलवंशीय मानदेव और पद्मप्रभ का पुत्र प्रह्लक, पल्लिका में विश्रुत शालिभद्र का पुत्र साधारण और पल्लिका में चन्द्र समान ऋषभ का पुत्र सड्ढक आदि। चित्तौड़ में धर्माराधन हेतु विधिचैत्य का अभाव था। तत्रस्थ चैत्यवासियों के विरोध के बावजूद भगवान् महावीर का विशाल विधि-चैत्य बना जिसकी प्रतिष्ठा वि०सं० ११६२ में हुई। नरपति नरवर्म ने भी मंदिर की अर्चानिमित्त धनदाय विभाग से दान भी किया।
उस समय में मालवपति महाराजा भोज के वंशज और महाराजा उदयादित्य के पुत्र महाराजा नरवर्म का चित्तौड़ पर आधिपत्य था। यह दुर्लभ ऐतिहासिक उल्लेख भी इसमें प्राप्त है। लेखाङ्क २ - श्री जिनवल्लभगणि (आचार्य जिनवल्लभसूरि) द्वारा प्रतिष्ठित चित्रकूटीय पार्श्वनाथ चैत्य प्रशस्ति भी आज प्राप्त नहीं है किन्तु उस प्रशस्ति का कुछ अंश प्रस्तर शिलालेख पर
XIV
पुरोवाक्
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org