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थीं, उनसे सम्बन्धित है। आबू और सिद्धाचल का यात्रीसंघ निकाल कर इस परिवार ने संघपति पद प्राप्त किया था। प्रतिष्ठापक थे - अकबर प्रतिबोधक साधूपद्रवारक युगप्रधान पदधारक श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर श्री जिनसिंहसूरि के पट्टधर जहाँगीर शाह के द्वारा प्रदत्त युगप्रधान पद के धारक, शत्रुजय चौमुखजी मंदिर के प्रतिष्ठापक श्री जिनराजसूरि । भाणवड़ नगर में शान्तिनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा के समय मूलनायक की मूर्ति से अमीझारा की वर्षा हुई थी। लेखाङ्क १३७४ - सम्वत् १६७८ में महाराजा गजसिंह के विजयराज्य में राय लाखण संतानीय भंडारी गोत्रीय अमराजी के पुत्र भाणाजी ने अपने परिवार सहित कापरडा के स्वयंभू पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाकर प्रतिष्ठा करवाई थी। प्रतिष्ठापक थे - श्री जिनदेवसूरि के पौत्र शिष्य श्री जिनसिंहसूरि के पट्ट शिष्य श्री जिनचन्द्रसूरि । लेखाङ्क १४३५ - बादशाह शाहजहाँ के विजयराज्य में पावापुरी नगर में महावीर की निर्वाण भूमि पर सम्वत् १६९८ में महावीर स्वामी का मंदिर मंत्रीदल संतानीय सकल संघ ने मिलकर बनाया है। इस प्रशस्ति में लिखा है, मंत्रीदल ज्ञाति के चौपड़ा, रोहदिय, महधा, काद्रड़ा, वार्तीदिया, नानहरा, संघेला, काणा, जाजीयाण, पाहड़िया, मीणमाण, बजागरा, जूझ, चौधरी आदि गोत्रों के महत्तियाण संघ ने यह मंदिर बनवाया। इस मंदिर की प्रतिष्ठा श्री जिनराजसूरि के आदेश से युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य श्री समयराजोपाध्याय के शिष्य पूर्व देश में विहार करने वाले कमललाभोपाध्याय ने पं० लब्धिकीर्ति, पं० राजहंसगणि, देवविजयगणि आदि शिष्य परिवार के साथ कराई। लेखाङ्क १५०० - सम्वत् १७६७ में महाराजा अजितसिंह के विजयराज्य में हम्मीरपुर (फलौदी) में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के शिष्य परम्परा में महोपाध्याय पुण्यप्रधानगणि > उपाध्याय सुमतिसागरगणि > वाचनाचार्य साधुरंगगणि > उपाध्याय विनयप्रमोदगणि > वाचनाचार्य विनयलाभगणि की छतरी और पादुकाएँ पंडित सुमतिविमल ने स्थापित की। (महोपाध्याय पुण्यप्रधान की दो परम्पराएँ चलीं- १. अध्यात्म योगी देवचन्द्रजी की और २. विनयप्रमोद की)। लेखाङ्क १५१४ - सम्वत् १७८१ में जैसलमेर के राउल अखयसिंहजी के विजयराज्य में खरतरगच्छ की बेगड़शाखा के जिनेश्वरसूरि की पट्ट परम्परा में जिनगुणप्रभसूरि > श्री जिनेश्वरसूरि > श्री जिनचन्द्रसूरि > श्री जिनसमुद्रसूरि > श्री जिनसुन्दरसूरि > श्री जिनउदयसूरि के विजय राज्य में उपाश्रय का निर्माण करवाया गया। लेखाङ्क १५२२ से १५३१, १५३६, १५३८ से १५४२, १५४८, १५४९ आदि लेख, उपाध्याय दीपचन्द एवं देवचन्द्र उपाध्याय से सम्बन्धित हैं। युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि की परम्परा में महोपाध्याय श्री राजसागरजी > महोपाध्याय ज्ञानधर्म > उपाध्याय दीपचन्द्रगणि > उपाध्याय देवचन्द्र ने प्रतिष्ठा करवाई। लेखाङ्क १५४० में देवचन्दजी के लिए लिखा गया है कि वे संवेग
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पुरोवाक्
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