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जिनराजसूरि ने की। इस प्रशस्ति में उद्योतनसूरि से लेकर युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि और जिनसिंहसूरि की पट्ट-परम्परा का नामोल्लेख किया है। युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के लिए लिखा है कि अकबर ने इन्हें युगप्रधान पद दिया था और इस पदवीदान समारोह में मंत्री कर्मचन्द्र ने सवा करोड रुपया खर्च किया था। यहाँ एक विशेषण विशेष रूप से प्राप्त होता है "कुपित-जहाँगीरसाहिरंजक तत्स्वमण्डलबहिष्कृतसाधुरक्षक" इससे संकेत मिलता है कि किसी साधु के अवांछनीय व्यवहार को लेकर जहाँगीर कुपित हो गया था और श्वेताम्बर साधुओं को अपनी राज्य सीमा से बाहर निकलने का आदेश दे दिया था। युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि इस आदेश से अत्यन्त दुःखित हुए और जहाँगीर से मिलने के लिए अपने साधना बल से वहाँ पहुचे। जहाँगीर को प्रसन्न कर इस आदेश को वापस करवाया और समस्त साधुजनों का विचरण वापस करवाया। जहाँगीर ने ही जिनसिंहसूरि को युगप्रधान पद दिया था, उन्हीं के पट्टधर देवी अम्बिका के वरदान को धारण करने वाले, घंघाणीपुर में प्रकट प्रतिमाओं का लेख बांचने वाले, बोहित्थ वंशीय धर्मसीधारल्ल देवी के पुत्र, सर्व शास्त्रों के ज्ञाता जिनराजसूरि ने इसकी प्रतिष्ठा करवाई थी। प्रतिष्ठा के समय आचार्य जिनसागरसूरि, महोपाध्याय जयसोम, गुणविनयोपाध्याय, धर्मनिधानोपाध्याय, पं० आनन्दकीर्ति और भद्रसेन आदि भी सम्मिलित थे। लेखाङ्क १३११ से १३१६ तक के पूर्वोक्त लेख १३१० का समर्थन करते हैं। इसी प्रकार संघपति सोमजी शिवाजी के लेखांक १३२६ से १३२८ द्रष्टव्य हैं। लेखाङ्क १३३५ - शतदलपद्मयन्त्र के कर्ता वाचनाचार्य रत्नसार के शिष्य सहजकीर्तिगणि हैं। इसकी रचना सम्वत् १६७५ में जिनराजसूरि के विजयराज्य में लौद्रवपुर (लौद्रवा) पार्श्वनाथ मंदिर के निर्मापकभणसाली गोत्रीय श्रीमल्ल के पुत्र थाहरूशाह के आग्रह से की गई। इस शतदल पद्मयन्त्र की विशेषता है कि मध्य में मकार शब्द का प्रयोग किया गया है और उसकी १०० पंखुड़ियों के अन्त में यह मकार सम्बद्ध हो जाता है। पार्श्वनाथ की स्तुति रूप इस प्रकार की रचनाएँ नहीं के समान प्राप्त होती हैं । सहजकीर्ति ने अपने वैदुष्य का प्रयोग करते हुए चित्रकाव्य के रूप में इसकी रचना की। लेखाङ्क १३३६ से १३४७ - संघपति थाहरूशाह और उनके परिवार से सम्बन्धित हैं। इन्होंने शत्रुजय तीर्थ की यात्रा करने हेतु संघ निकाला था। उसका एक कपड़े पर चित्रपट्ट भी लगभग ३५ वर्ष पूर्व जयपुर में प्राप्त था किन्तु आज वह अप्राप्त है। तीर्थ यात्रा में जिस रथ का प्रयोग किया था वह रथ आज भी लौद्रवा में मौजूद है। लेखाङ्क १३८६, १३८७ और १४२३ से १४२७ भी इनसे सम्बन्धित हैं। लेखाङ्क १३५५ से १३६९ - लेखों का सारांश है :- सम्वत् १६७७ में गणधर चौपड़ा गोत्रीय संघपति नग्गा > संग्राम> माला > देका > कचरा ) अमरसी के पुत्ररत्न आसकरण और उनके चाचा चांपसी तथा उनके भाई अमीपाल कपूरचन्द और आसकरण के पुत्र ऋषभदास, सूरदास आदि परिवार के साथ मेड़ता नगर में मंदिर और मूर्तियों का निर्माण करवाकर प्रतिष्ठाएँ करवाई
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