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तक दी गई है। जिनभद्रसूरि के विशिष्ट कृत्यों में लिखा है कि जिनके उपदेश से गिरनार, चित्तौड़, माण्डव्यपुर, जालौर आदि स्थानों पर नवीन मंदिर का निर्माण और प्रतिष्ठाएँ हुई थीं, साथ ही इनके उपदेश से अणहिलपुर, मण्डपदुर्ग, प्रह्लादनपुर आदि स्थानों पर ज्ञान भण्डार स्थापित किये गये थे। जिनभद्रसूरि अनेकान्तजयपताका और विशेषावश्यकभाष्य और कर्मप्रकृति आदि के उद्भट विद्वान् थे। महाराजा वैरसिंह, त्र्यंबकदास आदि इनके भक्त थे। इस प्रतिष्ठा के समय जिनभद्रसूरि ने सम्भवनाथ आदि ३०० मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई थी। चौपड़ा वंश द्वारा स्थापित मूर्तियों के लेखों में लेखाङ्क २८०, २८१, २८८, ६०७, ६४४ आदि द्रष्टव्य हैं। लेखाङ्क ३५९ - सम्वत् १५०५ में महाराणा कुम्भकर्ण के कोष व्यापारी शाह कोला के पुत्ररत्न भण्डारी वेला ने परिवार सहित अष्टापद तुल्य श्री शांतिनाथ का मंदिर बनवाकर प्रतिष्ठा करवाई। इसकी प्रतिष्ठा पिप्पलक शाखीय जिनसागरसूरि के पट्टधर जिनसुंदरसूरि ने की। लेखाङ्क ३६० - सम्वत् १५०५ में जैसलमेर में राउल चाचिगदेव के विजयराज्य में शंखवाल गोत्रीय आसराज ने तपपट्टिका का निर्माण करवाकर श्री जिनभद्रसूरि से प्रतिष्ठा करवाई थी। प्रशस्ति लेख मेरुसुन्दरगणि ने लिखा। इस प्रशस्ति में उद्योतनसूरि से लेकर जिनभद्रसूरि तक के आचार्यों की नामावलि दी गई है। लेखाङ्क ४४७ - सम्वत् १५१० के दिन गोपाचल नगर (ग्वालियर) के राजाधिराज डूंगरसिंह के राज्य में देवराज ने संभवनाथ प्रतिमा की प्रतिष्ठा पिप्पलक शाखीय श्री जिनसागरसूरि से करवाई। लेखाङ्क ५३७ - सम्वत् १५१५ में महाराणा कुम्भकर्ण के विजय राज्य में खरतरवसहीचतुर्मुखप्रासाद आबू का निर्माण दरड़ा गोत्रीय आसराज के पुत्र संघपति मण्डलिक ने करवाया। ये मण्डलिक श्री जयसागरोपाध्याय के भाई थे। इसकी प्रतिष्ठा श्री जिनभद्रसूरि के शिष्य श्री जिनचन्द्रसूरि से करवाई। इनसे सम्बन्धित अन्य लेखांक ५३७ से ५५६ तक द्रष्टव्य हैं। लेखाङ्क ६०९ - पार्श्वनाथ मंदिर, जैसलमेर में राउल चाचिगदेव के विजय राज्य में सम्वत् १५१८ में मण्डोवर वासी नाहटा समरा ने परिवार सहित नन्दीश्वर पट्ट का निर्माण करवाया। लेखाङ्क ७०२ - श्री कमलसंयमोपाध्याय के उपदेश से जिनभद्रसूरि की पादुका वैभारगिरि में प्रतिष्ठित की गई। लेखाङ्क ७१५ - सम्वत् १५२५ में श्री कीर्तिरत्नसूरि का स्तूप और पादुका प्रतिष्ठित की गई। यह शिलालेख प्रशस्ति प्राप्त नहीं है। इसकी हस्तलिपि प्रति प्राप्त होती है। इस प्रशस्ति में वीरमपुर (महेवा, नाकोड़ा) के अधिपति भोजराज के पुत्र राठौड़ वीदा को बतलाया है। शंखवाल गोत्रीय कोचर की सन्तान-परम्परा में देपा के पुत्र देल्हा का वर्णन किया गया है। देल्हा ही दीक्षित होकर कीर्तिराज बनते हैं और जिनभद्रसूरि से आचार्य पद प्राप्त कर कीर्तिरत्नसूरि कहलाते हैं। इनके प्रमुख शिष्यों के नामोल्लेख और कीर्तिरत्नसूरि का अन्तिमावस्था
पुरोवाक्
पगेलात
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