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पुरोवाक)
प्राचीन इतिहास और जैनाचार्यों के प्रामाणिक इतिहास लेखन के लिए शिलालेख, मूर्तियों के प्रतिष्ठा लेख, ग्रन्थ रचना प्रशस्तियाँ, ग्रन्थ लेखन पुष्पिकाएँ, पट्टावलियाँ/गुर्वावलियाँ, नन्दी सूची, आचार्यों से सम्बन्धित रास, भास, गहुलियाँ और श्रीपूज्यों की दफ्तर बही आदि अन्तरंग साक्ष्य/साहित्य अत्यन्त आवश्यक है। इनके बिना प्रामाणिक इतिहास नहीं लिखा जा सकता।
पट्टावलियों में प्रारम्भ से लेकर लेखन समय तक की आचार्यों की पट्ट-परम्परा पूर्ण रूप से प्राप्त होती है। इन पट्टावलियों के भी ३ रूप होते हैं - लघु, मध्यम और बृहद् । लघु में केवल आचार्यों के नाम प्राप्त होते हैं। मध्यम में कुछ जीवन परिचय होता है और बृहद् में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का पूर्ण रूप से अथवा किंचित् दिग्दर्शन होता है। इन पट्टावलियों में भी पूर्व की आचार्य-परम्परा का वर्णन श्रुत-परम्परा पर आधारित होता है और वर्तमान आचार्यों का आँखों देखा वर्णन। अतः श्रुत-परम्परा के आधार पर लिखित पूर्ण रूप से प्रामाणिक नहीं हो सकता। लेखक द्वारा वर्णित तात्कालिक आचार्यों का वर्णन प्रामाणिक होता है। हाँ, इसके वर्णन में कुछ अतिशयोक्ति हो सकती है। जिनपालोपाध्याय एवं उनके परवर्ती शिष्यों द्वारा लिखित खरतरगच्छालंकार युगप्रधानाचार्य बृहद् गुर्वावलि पूर्ण रूप से ऐतिहासिक व प्रामाणिक है। इसमें वर्णित राजकीय उल्लेख अन्य इतिहास द्वारा समर्थित हैं और प्रतिष्ठा सम्बन्धी प्रतिमाएँ आज भी प्राप्त होती हैं। यह गुर्वावलि आँखों देखी घटनाओं का सजीव वर्णन है अर्थात् उन लेखों की दैनन्दिन डायरी है।
प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के लेखों से स्वतः प्रमाणित हो जाता है कि उनके निर्माता उपासकों का समय, जाति और गोत्र तथा आचार्यों एवं पदवीधारी साधुजनों का समय-निर्धारण के साथ गुरु परम्परा भी निश्चित हो जाती है। उनके गच्छ का भी निर्धारण हो जाता है। कई-कई लेखों में उस समय के राजाओं के नामोल्लेख और ग्राम-नगरों के नामोल्लेख भी प्राप्त होते हैं। कई विस्तृत शिलालेख प्रशस्तियों में उस राजवंश का और निर्माताओं के वंश का वर्णन भी होता है और उनके कार्य-कलापों का भी।
खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह भी उस इतिहास की एक कड़ी है, दस्तावेज है। खरतरगच्छ के प्रौढ़ आचार्यों ने शास्त्र-सम्मत आचारों का सम्यक् पालन करते हुए, भगवान् महावीर के उपदेशों का सम्यक् प्रचार-प्रसार करते हुए, अपने उपदेशों से ओसवंश आदि जातियाँ और गोत्रों का निर्माण कर जो विशाल वट-वृक्ष तैयार किया है वह अनुपमेय है।
आततायियों द्वारा मंदिरों एवं प्राचीन कला-संस्कृति का जो ध्वंस हुआ था उस कलासंस्कृति पुनरुज्जीवित करने के लिए खरतरगच्छ के आचार्यों ने सैकड़ों नव-मंदिरों का निर्माण
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