Book Title: Khartargaccha Pratishtha Lekh Sangraha
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 11
________________ मङ्गलम् ) वर्तमान प्रचलित गच्छों में सबसे प्राचीन खरतरगच्छ की परम्परा है। खरतरगच्छ के आचार्यों, साधुओं, श्रावकों ने साधना, आराधना के हर क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। कल्याणक भूमियों की पावनता को साधना का आधार बनाने के लिये वहाँ पवित्र जिन मन्दिर का निर्माण, खरतरगच्छ के आचार्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। बिहार, उत्तरप्रदेश क्षेत्र जहाँ अधिकतर कल्याण भूमियाँ हैं, वहाँ के मन्दिर प्रायः खरतरगच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित हैं। प्राचीन समय में प्रतिमाओं पर नामोत्कीर्ण की परम्परा प्रायः नहीं थी। सम्राट् सम्प्रति द्वारा लाखों जिनबिम्ब भराने का उल्लेख शास्त्रों में उपलब्ध होता है परन्तु उनके द्वारा भराई गई किसी भी प्रतिमा पर कोई शिलालेख उपलब्ध नहीं होता। प्रतिमा की बनावट ही उनका प्रमाण है। आज भी स्थान-स्थान पर सम्राट् सम्प्रति द्वारा भराई प्रतिमाएँ उपलब्ध होती हैं। वैज्ञानिकों द्वारा कार्बन परीक्षण द्वारा उन प्रतिमाओं का वह समय प्रमाणित हो चुका है। प्रतिमाओं पर नामांकन किये जाने का प्रारम्भ काफी बाद में हुआ प्रतीत होता है। इतिहासकारों के अनुसार विक्रम की छठी-सातवीं शताब्दी के शिलालेख प्राचीनतम प्रतिमाशिलालेख माने जाते हैं। शिलालेख इतिहास का प्रामाणिक दस्तावेज है। यह उस समय का ऐसा दर्पण है, जिसके आधार पर तत्कालीन परिस्थितियों का सटीक अनुमान किया जा सकता है। यह अनुमान, अनुमान कम यथार्थ अधिक होता है। प्राचीन शिलालेखों में उस समय के राजा, आचार्य, व्यक्ति, गोत्र, गच्छ आदि प्रचुर ऐतिहासिक, सामग्री उपलब्ध होती है। कई शिलालेखों में सिलावटों के नाम आदि का उल्लेख उनके प्रति सम्मान की सूचना देता है। - जैन समाज के पास इतिहास की यह अनमोल धरोहर शिलालेखों के रूप में सुरक्षित है। हांलाकि यह भी उतना ही सही है कि समाज उस धरोहर की मूल्यवत्ता सम्यक् रूप से नहीं जान पाया है। इस कारण शिलालेखों की सुरक्षा के प्रति वह जागरूक नहीं है। यह कथन भी सही होगा, वह शिलालेखों के नष्ट होने का कारण भी बना है। ____500 वर्ष से अधिक समय पूर्व की प्रतिमाओं पर नाम-लेखन प्रायः आगे नहीं किया जाता था। प्रतिमा के पीछे के भग में गादी पर किया जाता था। आगे चौकोर आकार की अच्छी डिजाईन बनाई जाती थी। कहीं-कहीं उसमें अष्ट मंगल उत्कीर्ण किये जाते थे। प्रतिष्ठा के समय प्रतिमा की मजबूती आदि के लक्ष्य से इतना सीमेन्ट पोत दिया जाता था कि शिलालेख उसी में दब कर रह जाता था। इस प्रकार शासन का बहुत बड़ा इतिहास समाज की असावधानी की भेंट चढ़ गया। आज भी प्रायः यही स्थिति है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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