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खरतरगच्छ का अभ्युदय शास्त्रोक्त आचार-व्यवहार के पालन में आई कमजोरी को दूर करने के लिए ही हुआ था। अतः शास्त्रीय विधानों की सम्यक् व्याख्या एवं पुनः स्थापना खरतरगच्छ द्वारा होनी स्वाभाविक ही थी।
खरतरगच्छाचार्यों ने अशास्त्रीय, अकरणीय और अवांछनीय का खण्डन करके शास्त्रीय, करणीय एवं वांछनीय तत्त्वों का मण्डन और नवनिर्माण किया। खरतरगच्छाचार्यों ने श्रमण साधुओं के लिए भी निम्नांकित कर्त्तव्यों का परिपालन करना अनिवार्य बताया, जिनके बिना साधु, साधु नहीं, अपितु सांसारिक वृत्तियों में रचा-पचा गृहस्थ जैसा है।
(१) अशुद्ध और स्वयं के लिए निर्मित भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। (२) चैत्य आत्म-साधना का स्थान है। अत: वहाँ निवास नहीं करना चाहिए। (३) चैत्यों/जिन मंदिरों के अर्थ का उपभोग और वहाँ गृहस्थ-धर्म का सेवन अनुचित है।
(४) गद्दी आदि का आसन, तत्सम्बन्धित कामोद्दीपक साधन और आस्रवपूर्ण क्रियाओं का परित्याग होना चाहिए।
(५) सिद्धान्त-मार्ग की अवज्ञा, उन्मार्ग/उत्सूत्र की प्ररूपणा, सन्मार्ग प्ररूपक आत्मसाधक-मुनियों की अवहेलना एवं गुणीजनों की उपेक्षा कदापि नहीं करनी चाहिए आदि-आदि।
इसी प्रकार अन्य भी अनेक छोटे-बड़े विधान 'विधि-चैत्य' और साधुगण के लिए प्ररूपित किये गये। खरतरगच्छ की मान्यताओं, विधानों एवं व्यवस्थाओं का विस्तृत विवरण जिनवल्लभसूरि रचित 'पौषधविधि', मणिधारी जिनचन्द्रसूरि रचित 'पदव्यवस्था कुलक', आचार्य जिनप्रभसूरि रचित 'विधिप्रपा', रुद्रपल्लीय आचार्य वर्धमानसूरि रचित 'आचारदिनकर' और समयसुंदर रचित 'समाचारी-शतक' आदि ग्रन्थों में द्रष्टव्य है। ३. शास्त्रार्थ-कौशल
खरतरगच्छ का तो आविर्भाव ही शास्त्रार्थमूलक परिवेश में हुआ था। आचार्य जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि इन दोनों युगल-बन्धुओं ने चैत्यवासी आचार्यों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा और विजय प्राप्त की। सूराचार्य जैसे उद्भट विद्वानों को परास्त करने का श्रेय खरतरगच्छ को ही है। खरतरगच्छ की परम्परा में हुए आचार्यों, मुनियों और विद्वानों ने अनेकशः शास्त्रार्थ किये। उनकी मनीषा ने दिग्गज विद्वानों को शास्त्रार्थ में परास्त कर जैन धर्म की प्रभावना में बढ़ोतरी की। अप्रतिम मेधा के धनी आचार्य जिनपतिसूरि का नाम यहाँ विशेष उल्लेख्य है, जिन्होंने अपने जीवन में छत्तीस बार शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कर धर्म-प्रभावना में चार-चाँद लगाए।
भूमिका
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