Book Title: Khartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 16
________________ के अनुसार धर्म-निर्दिष्ट आचार-परम्परा में आमूल-चूल परिवर्तन तो नहीं कर पाता, किन्तु उसमें उच्चता या शिथिलता तो स्वीकार कर सकता है। भगवान् महावीर का तत्कालीन श्रमण-संघ तो समरूपेण आचार एवं विचारनिष्ठ था। उनके समसामयिक एवं परवर्तीकाल में हुए श्रमणों तथा श्रमणाचार्यों ने अपने योगबल, ज्ञानबल और चारित्रबल के द्वारा आत्मोत्थान किया। इसे काल का दुष्प्रभाव समझें या भाग्य की विडम्बना कि तत्परवर्तीकाल में आचार-निष्ठता धूमिल होने लगी और शिथिलता की महामारी से अनेक श्रमण ग्रसित हो गये। यद्यपि श्रमणोचित धर्म का परिपालन न करने के कारण वे श्रमण कहलाने की अधिकारी ही नहीं थे, तथापि वे स्वयं को श्रमण कहते और उसी रूप में ही प्रतिष्ठा एवं सम्मान प्राप्त करते। यह वर्ग ही परवर्ती काल में चैत्यवासीयतिवर्ग के रूप में प्रसिद्ध हुआ। चैत्यवासी यतिजनों की बहुलता हो जाने के कारण जिनोपदिष्ट आगमिक आचार-दर्शन का सम्यक्तया पालन करने वाले श्रमण गिनती के ही रह गये। शास्त्रोक्त यतिधर्म या श्रमणधर्म के आचार-व्यवहार में और चैत्यवासी यतिजनों के आचार-व्यवहार में परस्पर असंगति होने से धार्मिक क्रान्ति अनिवार्य थी। इस ओर सर्वप्रथम कदम उठाया आचार्य जिनेश्वरसूरि ने। इन्होंने चैत्यवासी यति-श्रमणों के विरुद्ध प्रबल आन्दोलन किया। उन्हीं के प्रयासों का यह सुमधुर फल था कि आगमिक आचार-दर्शन के मार्ग की पुनर्स्थापना हुई। इसके लिए ग्यारहवीं सदी में श्री वर्धमानसूरि के नेतृत्व एवं बुद्धिसागरसूरि के सहभागित्व में जिनेश्वरसूरि ने सुविहित मार्ग-प्रचारक एक नया गण स्थापित किया, जो खरतरगच्छ के नाम से विख्यात हुआ। यह गण अविच्छिन्न एवं अक्षुण्ण रूप से गतिशील रहा। इस गच्छ की स्थापना के संदर्भ में हम प्रस्तुत ग्रन्थ में विस्तृत जानकारी प्राप्त करेंगे। जैन धर्म को इसने जो अनुदान किया, उसका अपने-आप में ऐतिहासिक मूल्य है। खरतरगच्छ का वैशिष्ट्य खरतरगच्छ वह परम्परा है जिसने चैत्यवास और मुनि-जीवन के शिथिलाचार के विरुद्ध क्रान्ति की। इस गच्छ में हुए आचार्यों के द्वारा चैत्यवास का उन्मूलन और सुविहित मार्ग का प्रचार करने के कारण ही आज तक श्रमण-धर्म प्रतिष्ठित रहा। खरतरगच्छ की यह तो प्राथमिक सेवा है, साहित्य-साधना और सामाजिकसेवा भी खरतरगच्छ की अन्य विशेषताओं में प्रमुख है। इस मत का समाज पर इतना वर्चस्व एवं प्रभुत्व छाया कि हजारों लोगों ने इसमें निर्ग्रन्थ-दीक्षा ली और लाखों लोगों ने इसका अनुगमन किया। समाज में सर्वाधिक प्रसिद्ध ओसवाल-जाति का विस्तार इसी गच्छ की देन है। (२) भूमिका Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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