Book Title: Keynote Address of Dr Sagarmal Jain at Calcutta
Author(s): Mahadeolal Saraogi
Publisher: Mahadeolal Saraogi

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Page 37
________________ यज्ञशाला आदि का न मिलना यही सिद्ध करता है कि वह संस्कृति तप, योग एवं ध्यान प्रधान व्रात्य संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थी । किन्तु इतना निश्चित है कि आर्यो के आगमन के साथ प्रारंभ हुए वैदिक युग से दोनों ही धाराएं साथ-साथ प्रवाहित हो रही हैं और उन्होंने एक दूसरे को पर्याप्त रूप से प्रभावित भी किया है। प्रग्वेद में व्रात्यों के प्रति जो तिरस्कार भाव था, वह अथर्ववेद में समादर भाव में बदल जाता है, धाराओ जो दोनों के समन्वय का प्रतीक है। तप, त्याग, संन्यास, ध्यान, समाधि, मुक्ति और अहिंसा की अवधारणायें, जो प्रारम्भिक वैदिक ऋचाओं और कर्मकाण्डीय ब्राह्मण ग्रन्थों में अनुपलब्ध थी, वे आरण्यक आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में और विशेष रूपं ते उपनिषदों में अस्तित्व में आ गयी है। इससे लगता है कि ये अवधारणाएं संन्यास - मार्गीय श्रमणधारा के प्रभाव से ही वैदिक धारा में प्रविष्ट हुयी हैं। उपनिषदों, महाभारत और गीता में एक ओर वैदिक कर्मकाण्ड की समालोचना और उन्हें आध्यात्मिकता से समन्वित कर नये रूप में परिभाषित करने का प्रयत्न तथा दूसरी और तप संन्यास और मुक्ति आदि की स्पष्ट रूप स्वीकृति, यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ श्रमण और वैदिक धारा के बीच हुए समन्वय या संगम के ही परिचायक है। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उपनिषद् और महाभारत - जिसका एक अंग गीता है, - शुद्ध रूप से वैदिक कर्मकाण्डत्मक धर्म के प्रतिनिधि नहीं है। वे निवृत्ति प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिक धारा के समन्वय का परिणाम है। उपनिषदों में और महाभारत, में गीता आदि में जहा एक ओर श्रमणधारा के आध्यात्मिक और निवृत्ति प्रधान तत्वों को स्थान दिया गया, वहीं दूसरी ओर यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्डों की .भी श्रमण परम्परा के समान आध्यात्मिक दृष्टि से नवीन परिभाषाएं, प्रस्तुत की गई, उनमें यज्ञ का अर्थ पशुबलि न होकर स्वहितों की बलि या समाजसेवा हो गया। हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारा हिन्दू धर्म वैदिक और श्रमण धाराओं के समन्वय का परिणाम है । वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध में, जो आवाज औपनिषदिक युग के ऋषि मुनियों ने उड़ाई थी, जैन, बौद्ध और अन्य श्रमण परम्पराओं में मात्र उसे मुखर ही किया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली आवाज उठाई तो वे औपनिषदिक ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले कहा था कि ये यज्ञरूपी नौकाये अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम नहीं है । सर्वप्रथम वैदिक कर्मकाण्ड के विरुद्ध औपनिषदिक ऋषियों ने ही अपना स्वर - मुखर किया था। यज्ञ Jain Education International 3 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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