Book Title: Keynote Address of Dr Sagarmal Jain at Calcutta Author(s): Mahadeolal Saraogi Publisher: Mahadeolal SaraogiPage 68
________________ पारिवारिक जीवन में जैनधर्म की अनेकान्त दृष्टि का उपयोग : जिस मान्यता को स्वयं मानकर पिता की दृष्टिअनुभव कौटुम्बिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर कुटुम्बों में और सदस्यों में संघर्ष को टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण अ का निर्माण करेगा। सामान्यतया पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केन्द्र होते हैं - पिता-पुत्र तथा सास-बहू । इन दोनों में मूल कारण दोनों का दृष्टि-भेद है। पिता जिस परिवेश में बड़ा हुआ उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है। बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है। प्रधान होती है जबकि पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान । एक प्राचीन संस्कारों से गस्त होता है, तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना चाहता है। यही स्थिति सास-बहू में होती है। सास यह अपेक्षा करती है कि बहू ऐसा जीवन जिये जैसा उसने स्वयं बहू के रूप में जिया था जबकि बहू अपने युग के अनुरूप और अपने मातृ पक्ष के संस्कारों से प्रभावित जीवन जीता चाहती है। मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा यह भी होती है कि वह उतना ही स्वतंत्र जीवन जीये जैसा वह अपने माता-पिता के पास जीती थी। इसके विपरीत प्रवर पक्ष उससे एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है। यही सब विवाद के कारण बनते हैं। इसमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने का प्रयास नहीं हो सकता। वस्तुतः इसके मूल में जो दृष्टि-भेद है उसे अनेकान्त पद्धति से सम्यक् प्रकार जाना जा सकता है। 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only कुटुम्ब वास्तविकता यह है कि हम जब दूसरे के सम्बन्ध में कोई विचार करें, कोई निर्णय लें तो हमें स्वयं अपने को उस स्थिति में खड़ा कर सोचना चाहिए। दूसरे की भूमिका में स्वयं को खड़ा करके ही उसे सम्य प्रकार से जाना जा सकता है। पिता पुत्र से जिस बात की अपेक्षा करता है, उसके पहले अपने को पुत्र की भूमिका में खड़ा कर विचार कर लें। अधिकारी कर्मचारी से जिस ढंग से काम लेना चाहता है उसके पहले स्वयं को उस स्थिति में खड़ा कर फिर निर्णय ले । यही एक दृष्टि है जिसके द्वारा एक सहिष्णु मानस का निर्माण किया जा सकता है और मानव जाति को वैचारिक संघर्षो से बचाया जा सकता है। के www.jainelibrary.orgPage Navigation
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