Book Title: Keynote Address of Dr Sagarmal Jain at Calcutta
Author(s): Mahadeolal Saraogi
Publisher: Mahadeolal Saraogi

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Page 42
________________ स्वरूप के संदर्भ में जो विवरण प्रस्तुत किया गया है वह माण्डूक्योपनिषद में यथावत् मिलता है। आचारांग में श्रमण और ब्राम्हण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्धियों के रूप में नहीं, अपितु सहगा मियों के रूप में ही मिलता है।चाहे आचारांग उत्तराध्ययन आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते है, किन्तु वे ब्राम्हणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक पथ का अनुगामी मानते है जिस पर पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण वह है जो सदाचार का जीवन्त प्रतीक है। अनेक स्थलों पर श्रमणों और ब्राह्मणों (समणा-महाणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार सूत्रकृतांग में यद्यपि तत्कालीन दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा है किन्तु उसके साथ ही उसमें औपनिषदिक युग के अनेक ऋषियों यथा - 'विदेहनामि बाहुक, अस्ति देवल, दैपायन, पाराशर आदि का समादर पूर्वक उल्लेख हुआ है। सूत्रकृतांग स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करता है कि यद्यपि इन अषियों के आचार 'नियम उसकी आधार परम्परा से भिन्न थे, फिर भी वह उन्हें अपनी अहंत परम्परा का पूज्य पुरूष मानता है। वह उन्हें महापुरुष और तपोधमा के रूप में उल्लेखित करता है और यह मानता है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात जीवन के चरम साध्य मोक्ष को प्राप्त कर लिया था। सूत्रकृतांगकार की दृष्टि में ये अधिगण भिन्न आधारमार्ग का पालन करते हुये भी उसकी अपनी ही परम्परा के मान्य ऋषि या सूत्रकृतांग में इन अषियों को सिद्धि प्राप्त कहना तथा उत्तराध्ययन में अन्य लिंग सिदों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता है कि प्राचीन काल में जैन परम्परा अत्यन्त उदार थी और यह मानती थी कि मुक्ति का अधिकार केवल उसके आचार नियमों का पालन करने वाले ब को ही नहीं है, अपितु भिन्न आचार मार्ग का पालन करने वाला भी मुक्ति का अधिकारी हो सकता है। इसी संदर्भ में यहां प्राषिभाषित (इसिमा सियाई) का उल्लेख करना भी आवश्यक है, जो जैन आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ (ई. पू. चौथी शती) है। और जैन परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण उस समय हुआ होगा जब जैन धर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ था। इस ग्रन्थ में नारद, अस्ति देवल, अंगीरस पाराशर, अरुण नारायण, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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