Book Title: Keynote Address of Dr Sagarmal Jain at Calcutta
Author(s): Mahadeolal Saraogi
Publisher: Mahadeolal Saraogi

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Page 52
________________ एवं संघर्षों की उपस्थिति होते हुए भी, वे हमारी चेतना के स्वाभाविक लक्षण नहीं हैं । इसीलिए जैन विचारकों ने वैयक्तिक जीवन में निराकुलता और सामाजिक जीवन में शान्ति के हेतु ममत्व के विसर्जन के द्वारा उस समत्व के प्रकटीकरण पर बल दिया है जोकि + हमारा निजगुण या स्वभाव लक्षण है । 18 समत्वयोगः वर्तमान संघर्षो का उपचार समत्व हमारा बिर निज स्वरूप है क्योंकि जहाँ भी जीवन है. चेतना है, चाहे वह कितनी ही प्रसुप्त क्यों न हो वहां हमें समत्व की प्राप्ति के प्रयास - परिलक्षित होते हैं । चैत्त जीवन का स्वभाव बाह्य एवं आन्तरिक उत्तेजनाओं से चेतना में उत्पन्न विक्षोभ को समाप्त कर साम्यावस्था को बनाए रखना है । समत्व केन्द्र की ओर उन्मुख रहना, यह चेतना की स्वाभाविक प्रवृत्ति है । स्वभाव वह है जिसका निराकरण नहीं किया जाता है, विक्षोभ का निराकरण किया जाता है अत: वे आत्मा के स्वभाव नहीं होकर विभाव या विकार ही हैं । तमत्व लाया नहीं जाता वरन् विक्षोभ के समाप्त होते स्वतः प्रकट हो जाता है । पुनः स्वभाव स्वतः और विभाव परत: होता है, "समत्व का कोई कारण नहीं बताया जा सकता किन विक्षोभ सदैव ही सकारण होते हैं अतः "समत्व" ही चैत्त जीवन का स्वभाव होता है। जैन दर्शन में इसी स्वस्वभाव समत्व को हमारी आध्यात्मिक सत्ता का सार और जीवन का परमत्रेय माना गया है। जैनागमव्याख्या. प्रज्ञप्ति सन में कहा गया है + "आत्मा भत्व रूप है और समत्व ही आत्मा का साध्य है" । जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने तो आत्मा को "समयतार" कहा है ( समत्वं यत्य सारं तत् समयसारं ) । यह "समत्व क्या है १ यह स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार में वे कहते है- आत्मा की मोह और खोभ से रहित अवस्थाही * समत्व है ( 1:17 ) | जैन दर्शन की समग्र साधना का मूल सामायिक या समत्य योग है । इसमें समभाव की प्राप्ति रूप सम्यदर्शन तथा सम्यज्ञान एवं सम्यक्षारित्र तीनों का समावेश है । जिन्हें हम चित्तवृत्ति और आचरण का समत्व कह सकते हैं। व्यावहारिक दृष्टि से चित्तवृत्ति का का समत्व, बुद्धि का स्मत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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