Book Title: Keynote Address of Dr Sagarmal Jain at Calcutta
Author(s): Mahadeolal Saraogi
Publisher: Mahadeolal Saraogi

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Page 54
________________ "समत्व" में इन्द्रियां अपना कार्य करती हैं लेकिन उनमें भोगासक्ति नहीं होती, न इन्द्रियों के विषयों की अनुभूति राग और द्वेष को जन्म देती है । चिन्तन तो होता है, लेकिन उसमें पक्ष, वाद या मों का निर्माण नहीं होता। मन अपना कार्य तो करता हैंलेकिन वह चेतन के सम्मुख जिसे प्रस्तुत करता है उसे अपनी ओर से रंगीन नहीं बनाता। आत्मा विवाद द्रष्टा होता है। समत्व योग की साधना व्यक्ति को राग-द्वेष के द्वन्द्व से ऊपर उठाकर निर्द्वन्द्व वीतरागता की दिशा में ले जाती है। वैयक्तिक जीवन में समत्वयोग की साधना की उपलब्धि है निर्विकार, निर्विचार, निर्वैयक्तिक चेतना । यही प्रपंचशन्सत है, यह निर्वाण है, इसे ही ब्रहम-भाव, ब्राहमी स्थिति या वीतरागावस्था कहा जाता है। यद्यपि आन्तरिक समत्व, समत्वयोग का प्रमुख तत्व है, फिर भी इस आन्तरिक समत्व के कारण उसके आचार और विचार सामाजिक जीवन को प्रभावित करते है। सामाजिक जीवन की संस्थापना समत्वयोग का साध्य तो है लेकिन उसकी सिद्धि वैयक्तिक समत्व पर नहीं वसमाज के सभी सदस्यों के सामूहिक प्रयत्नों पर निर्भर है। आज समत्व योग की सामूहिक साधना की आवश्यकता है। इसी सामूहिक साधना से हम संघर्ष एवं शोषण रहित एक सहिष्णु समाज का निर्माण कर सकते हैं। इस सम्बन्ध में जैनधर्म के तीन सिद्धान्त अनेकांत, अपरिग्रह और अहिंसा हमारा उचित मार्गदर्शन कर मानव समाज को वैचारिक, आर्थिक और सामाजिक संघर्षो से उबार सकते है। आगे हम इन्हीं बातों पर थोड़ा गम्भीरता से विचार करेंगे+ Jain Education International - 19 ft. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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