Book Title: Keynote Address of Dr Sagarmal Jain at Calcutta
Author(s): Mahadeolal Saraogi
Publisher: Mahadeolal Saraogi

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Page 60
________________ के सम्बन्ध में मात्र स्थूल दृष्टि: है । लेकिन यह मानना भान्तिपूर्ण होगा कि जैन विचारणा अहिंसा की इस स्थूल एवं बहिर्मुख दृष्टि तक सीमित रही । जैन दर्शन का केन्द्रीय तत्व अहिंसा शाब्दिक रूप में यद्यपि नकारात्मक है लेकिन उसकी अनुमति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुमति सदैव ही विधायक रही है। सर्वत्र आत्मवत् दृष्टि करुणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई है। S 25 जैन धर्म में अहिंसा का आधार समता है और जहां समता हो, वहां किसी भी धर्म जाति आदि के प्रति राग-द्वेष, कलह, संघर्ष आदि का प्रादुर्भाव कैसे हो सकता ਵਿ वहां सभी धर्म सम्प्रदाय के प्रति समता की ही वृत्ति होती है। किन्तु इस समता के भाव का जो अभ्यास प्रजीवन के सामाजिक पक्ष में, दैनिक व्यवहार में, व्यवसाय में, नौकरी पेशे में होना चाहिए था, वह अभी नहीं हो पाया है। अहिंसा का हमने खूब गुणगान तो किया। परन्तु वह अहिंसा मानवों के पारम्परिक व्यवहार में दया, क्षमा, सेवा, प्रेम, अशोषणवृत्ति आदि के रूप में प्रकट न हो पाईं है, वह केवल मानवेतर प्राणियों की रक्षा करने तक सीमित हो गई है। मानवों के पारस्परिक व्यवहार में, लेन-देन में, सामाजिक मसलों में, धर्म सम्प्रदाय के आपती व्यवहार में हमने उस अहिंसा सिद्धान्त को प्रायः ताक में रख दिया है। किन्तु आज दुनिया में हिंसा और अहिंसा का जो मुकाबला है हिंसक शक्तियां भी अहिंसा का नकाब पहन कर सामने आती है। वे खुलकर प्रकट होने से डरती है। यह इस बात का प्रमाण है कि अब दुनिया भर के लोगों की श्रद्धा हिंसा पर से मिट गई है और आज का जन-मानस अहिंसा पर दृढं आस्था के साथ जीना चाहता है। यह शुभ लक्षण है। आज हमें वैयक्तिक स्तर पर ही नहीं सामाजिक स्तर पर अहिंसा की साधना के द्वारा एक समता मूलक समाज की रचना करनी होगी, तभी हम विश्व में अभय निष्ठा जागत कर मानवता को भय से मुक्त कर सकेंगे। यदि हम स्वस्थ समाज की रचना करना चाहते है तो वह समाज अहिंसा की आधार - भूमि पर ही खड़ा हो सकता है। समाज जीवन के लिये दो तत्व आवश्यक हैं पारस्परिक विश्वास और अपने क्षुद्र स्वार्थी को दूसरे के लिये त्याग | अविश्वास के मूल में होता है भय और संघर्ष के मूल में होता है स्वार्थ। इनके कारण समाज टूटता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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